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 तीनों कृषि विधेयक और किसान

तीनों कृषि विधेयक और किसान

अनिल कुमार केशरी 

राष्ट्रपति द्वारा तीन कृषि विधेयकों पर हस्ताक्षर करने के बाद राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तीन सवाल प्रमुख रूप से खड़े हो गये हैं। पहला खेतों की उपज का मूल्यांकन, दूसरा किसानों की मेहनत से प्राप्त खाद्य सुरक्षा और तीसरा आवश्यक खाद्य वस्तुओं का समाज के गरीब वर्ग में उनकी आर्थिक क्षमता के मुताबिक यथोचित वितरण। इस सन्दर्भ में सबसे पहले हमें उस दौर की तरफ नजर दौड़ानी चाहिए जब भारत में खाद्यान्न की कमी थी और कृषि उत्पादों के बाजार पर व्यापारियों का कब्जा था। भारत के पहले 1952 के आम चुनावों के बाद प. जवाहर लाल नेहरू ने अपने जिस मन्त्रिमंडल का गठन किया उसमें स्व. रफी अहमद किदवई को खाद्य व कृषि मन्त्री बनाया। वह 1954 तक मृत्यु पर्यन्त इस पद पर रहे। वह जमाना राशन का जमाना था। उनके खाद्य मन्त्री बनने के बाद भारत के बाजारों में यह अफवाह उड़ी कि सरकार के गोदामों में अनाज खत्म हो गया है जिससे निजी व्यापारियों ने खुले बाजार में अनाज के दाम अनाप-शनाप तरीके से बढ़ाने शुरू कर दिये और अनाज की जमाखोरी शुरू कर दी।श्री किदवई के कानों तक जब यह हकीकत उस दौर के अखबारों की मार्फत पहुंची तो उन्होंने घोषणा करवा दी कि भारत सरकार ने अनाज का आयात भारी मात्रा में करने के आदेश दिये थे जिसकी सप्लाई अब बन्दरगाहों पर जहाजों के द्वारा शुरू हो गई है, देखते-देखते ही खुले बाजार में अनाज के दाम वापस नीचे आने लगे और जमाखोरी समाप्त होने लगी। श्री किदवई ने बाजार की मुनाफा कमाने की वणिक वृत्ति का मुकाबला उसी के नियम से किया और बेहिसाब मुनाफा कमाने के लालच को तोड़ डाला। यह कार्य उनकी सिर्फ एक घोषणा से ही हो गया, यह घटना इस बात की तस्दीक करती है कि लोकतन्त्र में सरकार कभी भी व्यापारियों के भरोसे जनहित से जुड़े मुद्दे नहीं छोड़ती क्योंकि लोगों को आवश्यक सुविधाएं सुलभ कराने की प्राथमिक जिम्मेदारी लोगों द्वारा चुनी गई सरकार की ही होती है।महात्मा गांधी ने इस बारे में स्वतन्त्रता से पहले ही ‘यंग इंडिया’ और ‘हरिजन’ पत्रों में लेख लिख कर साफ कर दिया था कि भारत की आजादी तब तक मुकम्मल नहीं हो सकती जब तक कि किसान को महाजनों व सूदखोरों से छुटकारा न दिलाया जाये। इसके समानान्तर हरियाणा के जन नायक ‘सर छोटूराम’ ने संयुक्त पंजाब की 1936 में प्रान्तीय एसेम्बली के बाद बनी सरकार में विकास मन्त्री पद संभालते हुए राज्य में कृषि मंडियों की स्थापना की जिनमें किसान अपनी उपज लाकर उसका यथोचित मूल्य प्राप्त कर सके। इन मंडियों के प्रबन्धन में उन्होंने किसानों का प्रतिनिधित्व 75 प्रतिशत तय किया। सर छोटू राम के इस कार्य को उस समय कृषि क्षेत्र में क्रान्ति पैदा करने वाला कदम समझा गया। अतः भारत में किसान मंडी बाजारों की स्थापना अंग्रेजी शासन के दौरान जमींदारों के शोषण से मुक्ति का मार्ग समझा गया और बाद में स्वतन्त्र भारत में विभिन्न राज्य सरकारों ने इसका कानून बना कर अनुसरण किया, परन्तु इसके ही समानान्तर कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की पद्धति को अपनाया गया। यह कार्य 1965 से तब शुरू किया गया जब भारत में हरित क्रान्ति का बीजारोपण हो रहा था। तत्कालीन कृषि व खाद्य मन्त्री श्री सी. सुब्रह्मण्यम ने इस मामले में बहुत सख्त रुख अपनाते हुए किसानों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के इस कदम को उठाते हुए भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की जिससे सरकार स्वयं न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की उपज खरीद सके। ये सभी कार्य खाद्य सुरक्षा और किसानों को आत्म निर्भर बनाने के लिए इस प्रकार किये जा रहे थे जिससे देश की 70 प्रतिशत सामान्य आबादी को खाद्यान्न उचित मूल्यों पर सुलभ हो सके और खुले बाजार में इसकी जमाखोरी व कालाबाजारी पर रोक लग सके। इसके लिए राज्य सरकारों ने आश्वयक वस्तु अधिनियम बना कर इनकी भंडारण सीमा सुनिश्चित की। वर्तमान परिस्थितियों में कृषि विधेयकों को लेकर भ्रम का वातावरण बना हुआ है, उन पर सिर्फ किसान के नजरिये से सोचने की आवश्यकता है। किसान का मूल नजरिया यह है कि वह अपनी जमीन का मालिक है और उस पर उपजाई गई उपज उसकी ऐसी सम्पत्ति है जिस पर समूचे समाज की निर्भरता है। यह निर्भरता ही उसे अन्नदाता या धरती का भगवान बनाती है, उसका यह स्थान कोई दूसरा किसी सूरत में इस प्रकार नहीं ले सकता कि वह खुद अन्नदाता बन कर किसान को भिखारी बना दे।विचारणीय मुद्दा यही है जिस पर विभिन्न राजनैतिक दल उलझे हुए हैं। बाजार मूलक अर्थ व्यवस्था हमें सिखाती है कि किसी भी वस्तु का मूल्य मांग और सप्लाई पर निर्भर करता है मगर किसान जब अपनी उपज लाता है तो केवल सप्लाई ही सप्लाई होती है और मांग साल भर में सिलसिलेवार बंटी होती है। इसे देखते हुए ही लोकप्रिय व जनकल्याणकारी सरकार की भूमिका न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने के लिए तय की गई जिससे कृषि में लाभ का अंश सीधे किसानों को ही मिले और इसी के लिए कृषि मंडियां स्थापित की गईं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार कह रहे हैं कि न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) खत्म होगा और न मंडियां तो फिर भ्रम क्यों फैला है। अब सरकार ने रबी की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य भी घोषित कर दिए हैं। चने और गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी कर दी गई है। ऐसे में किसान क्यों चिन्तित है। राजनीतिक दल इसलिए चिन्तित हैं क्योंकि किसान बड़ा वोट बैंक है। निवेदन सिर्फ इतना सा है कि यह मुद्दा राजनैतिक बिल्कुल नहीं है बल्कि भारत की जमीन के उस सच से जुड़ा है जिसमें किसान ‘मिट्टी से सोना’ उगाता है और उसे पूरे समाज में बांट देता है।