Headlines
Loading...
वाराणसी : काशी कोतवाल बाबा काल भैरव ने 50 साल बाद छोड़ा कलेवर , कलेवर की जानें धार्मिक मान्यता ?

वाराणसी : काशी कोतवाल बाबा काल भैरव ने 50 साल बाद छोड़ा कलेवर , कलेवर की जानें धार्मिक मान्यता ?

वाराणसी । काशी के कोतवाल बाबा कालभैरव ने 50 साल बाद अपना कलेवर छोड़ दिया। भोर में बाबा ने जब अपना कलेवर छोड़ा तो उस समय मंगला आरती हो रही थी। इस पर नजर पड़ते ही परिसर जयकार, शंख ध्वनि और घंटा-घड़ियाल की टंकार से गूंज उठा। कलेवर को लाल वस्त्र में बांध कर पंचगंगा घाट ले जाया गया। श्रद्धालु नाव में सवार होकर मध्यधार में पहुंचे और कलेवर को विसर्जित किया। मान्यता है कि बाबा कलेवर तभी छोड़ते हैं जब कोई बड़ी आपदा आने वाली होती है। कलेवर छोड़ने का मतलब होता है कि आपदा को उन्होंने खुद झेल लिया है। 14 साल पहले भी एक बार बाबा ने विग्रह से एक परत का छूटा था।

मोक्ष नगरी काशी में परंपराओं और मान्‍यतओं का भी अनोखा संसार विद्यमान है। मंगलवार की सुबह काशी के रक्षक माने जाने वाले बाबा कालभैरव की मंगला आरती पूजा के दौरान उनके शरीर से चौदह साल के लंबे अंतराल के बाद कलेवर का एक हिस्‍सा अलग हुआ तो मानो तीनों लोकों से न्‍यारी नगरी और भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी काशी को एक और जन्‍म मिल गया। हलाहल पीकर दुनिया की रक्षा करने वाले भगवाल शिव के प्रतीक बाबा काल भैरव के शरीर से कलेवर का अलग होना माना जाता है कि इससे धरती पर किसी बड़ी आपदा को बाबा ने अपने ऊपर झेल लिया है। 


काशी में बाबा को चमेली का तेल और सिंदूर का लेप लगाने की परंपरा रही है। नित्‍य उनके शरीर पर लेपन की प्रक्रिया के बाद एक समय आता है जब इसकी परत अपने आप निकल जाती है। आज से लगभग 14 बरस पूर्व बाबा कालभैरव के शरीर से कलेवर की परत ने शरीर का साथ छोड़ा था। इसके बाद लंबे अंतराल के बाद मंगलवार को काशी के कोतवाल बाबा कालभैरव के शरीर से कलेवर अलग हुआ तो पूजन के समय पूरा परिसर हर हर महादेव के घोष से गुंजायमान हो गया।


वस्‍त्र की तरह बाबा देश में विपत्ति आने पर अपने शरीर के ऊपर ले लेते हैं, इसके बाद विपत्ति खत्‍म हो जाती है। यह हमेशा होता है। बाबा हमेशा आंशिक रूप से छोड़ते थे इस बार 50 साल बाद पूर्ण रूप से कलेवर छोड़े हैं। यह ऐतिहासिक घटना है। इसका मतलब है कि इस बार कोई बड़ी विपत्ति थी जो टल गई। मंदिर के बुजुर्ग भी इस परंपरा को बताते रहे हैं। तैलंग स्‍वामी बाबा को दर्शन कराने के बाद ही गंगा के घाट पर ले जाने की परंपरा का निर्वहन किया गया। मंदिर के वर्तमान स्‍वरूप का निर्माण 1716 में बाजीराव पेशवा ने कराया था। काशी का यह मंदिर पौराणिक मान्‍यता का है।