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वाराणसी : जलती चित्ता की रांख और उड़ते धुएं के बीच खेली जाती है 'भूतों वाली होली', जानें क्यों मनाई जाती है चिता की राख वाली होली
वाराणसी: आपने मथुरा की लठामार होली के बारे में सुना होगा. आपने गोबर और कीचड़ से खेली जाने वाली होली के बारे में भी सुना होगा. पर क्या आपने भूतों के साथ राख से खेले जाने वाली होली के बारे में सुना है? चौंकिये मत, आपने बिल्कुल ठीक सुना. ऐसी अद्भुत होली उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी में खेली जाती है.
हर साल रंग भरी एकादशी के दूसरे दिन, यानी होली से तीन दिन पहले वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर जलती लाशों, उड़ते धुएं और जीवन-मृत्यु के सवालों के बीच राख से होली खेली जाती है. महाश्मशान के नाम कहलाने वाला मणिकर्णिका घाट, ये दुनिया का अकेला ऐसा श्मशान है, जो कभी शांत नहीं होता. यहां पर हर समय एक ना एक चिता जलती ही रहती है.
बनारस की मान्यताओं के अनुसार, महाशिवरात्रि पर शिवजी का विवाह होता है और उसके बाद पड़ने वाली एकादशी को उनका गौना होता है. इस दिन वे अपने ससुराल जाकर मां पार्वती की विदाई कराकर काशी विश्वनाथ मंदिर लाते हैं, जिसे रंगभरी एकादशी के नाम से जाना जाता है. उस दिन वे देवी देवताओं और मनुष्यों के साथ होली खेलते हैं.
अगले दिन यानी द्वादशी पर दोपहर 12 बजे मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने के लिए आते हैं. उसके बाद भगवान शंकर अपने प्रीय गण, भूत-प्रेत पिशाच, सर्प और संसार के तमाम जीव जंतुओं के साथ होली खेलते हैं.भक्त भी भगवान के साथ होली मनते हैं.
होली के इस उत्सव के दौरान भी श्मशान में चिताएं जलती रहती हैं, माहौल हर-हर महादेव के नारों से गूंज उठता है. लोग एक दूसरे को रंग की जगह पर भस्म लगाते हैं. लोग यहां दोपहर में ही आ जाते हैं. स्नान, पूजा और लगभग 25 मिनट की आरती के बाद देर शाम तक चिता भस्म और गुलाल एक दूसरे को लगाकर जमकर होली का जश्न मनाते हैं. प्रसाद के रूप में भगवान को ठंडई और भांग का भोग लगता है. ऐसी भी मान्याता है कि इस दिन के बाद भोलेनाथ बनारस के लोगों को होली पर हुड़दंग करने की अनुमति भी देते हैं. बस इसके बाद से पूरा शहर 4 दिन तक होली के रंग में डूब जाता है. कहीं डमरू की गूंज, तो कहीं ढोल-मंजीरे की थाप पर लोग झूमते-गाते दिखाई देते हैं.
बनारस की इस होली का विवरण करते हुए पंडित छन्नूलाल मिश्र ने अपने गीत में लिखा है :