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ध्यानचंद से जुड़ी कहानियां-जब वो हिटलर के सामने नंगे पांव से खेले और भारी पड़े
नॉलेज डेस्क । देश में खेलों के सर्वोच्च सम्मान का नाम राजीव गांधी खेलरत्न पुरस्कार को अब ध्यानचंद खेलरत्न पुरस्कार के नाम से जाना जाएगा. तोक्यो ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम के 41 साल बाद कोई ओलंपिक पदक जीतने के बाद पूरे देश में खुशी की लहर दौड़ गई है. ध्यान चंद हॉकी के इतने महान खिलाड़ी थे कि आज भी दुनियाभर में हॉकी खेलने वाले देश उन्हें सम्मान देते हैं और आज भी उनका चमत्कृत किया जाना वाला खेल याद किया जाता है.
ध्यानचंद अपने आपमें खेल की बड़ी संस्था थे. उन्होंने एक साधारण सैनिक के तौर पर ब्रिटिश आर्मी में अपना करियर शुरू किया. पहली बार हॉकी को सही तरीके से खेलना उन्होंने यहीं शुरू किया. फिर तो ऐसी हॉकी खेली कि जब तक वो एक खिलाड़ी के तौर पर मैदान पर रहे. उनके आसपास भी कोई उनकी बराबरी का नहीं था. उन्हें लेकर ना जाने कितनी ही कहानियां हैं, जो एक खिलाड़ी और एक महान शख्सियत के तौर पर लोग उनके बारे में बताते रहे हैं, लिखते रहे हैं. ऐसी ही कुछ कहानियों यहां पेश हैं, जो ध्यानचंद के व्यक्तित्व के बारे में बताती हैं.
भारतीय हॉकी टीम जब 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में खेलने जा रही थी, उससे पहले उसने ब्रिटेन में कई प्रदर्शन मैच खेले. जिसमें ध्यानचंद ने हर मैच में गोलों की बौछार कर दी. इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ एक मैच देखने आईं. ध्यानचंद हमेशा की तरह शानदार तरीके से खेल रहे थे. हर कोई वाह-वाह कर रहा था.
हाफ टाइम के बाद जब उन्हें महारानी से मिलाया गया तो उन्होंने उनके खेल की बहुत तारीफ की. फिर अपना छाता उन्हें देते हुए कहा कि इसकी हॉकी की तरह मुड़ी हुई मूठ से खेलकर वह शानदार प्रदर्शन दिखा सकते हैं. ये चुनौती थी. ध्यानचंद ने मुस्कुराते हुए इसे कबूल किया. इससे भी वह ऐसा खेले मानो वह अपनी स्टिक से ही खेल रहे हों.
यही नहीं, वह इससे भी दो गोल करने में सफल रहे. इसके बाद तो उनका लोहा इस कदर जमा कि इंग्लैंड के मीडिया ने उन्हें हॉकी का जादूगर बता दिया. यहीं पहली बार मीडिया ने उन्हें हॉकी के जादूगर कहकर नवाजा था.
भारत ने जब वर्ष 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में पहली बार हॉकी का स्वर्ण पदक जीता तो ध्यानचंद देशभर में हीरो बन गए लेकिन सेना में उनकी स्थिति पहले जैसी साधारण सैनिक की ही थी. अगले ओलंपिक से ठीक पहले उन्हें अफगानिस्तान के पास नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में तैनात कर दिया गया. वहां से विद्रोह की खबरें आने लगी थीं. वहां उथल-पुथल ज्यादा थी.
ध्यानचंद की बटालियन वजीरिस्तान में उसी फ्रंट पर तैनात थी, जहां जीवन ज्यादा कठिन था और खेल के लिए समय कम. दुनिया से करीब करीब कटी हुई थी ध्यानचंद की बटालियन. पहले तो इंडियन हॉकी फेडरेशन का नियंत्रण आर्मी स्पोर्ट्स कंट्रोल बोर्ड से संबद्ध सेना के अधिकारियों के हाथों में था लेकिन अब वो उनके पास से सिविलियन के पास चला गया था.
लिहाजा इंडियन हॉकी फेडरेशन और सेना के बीच वैसा मैत्रीभाव और तालमेल भी कम हो गया, जैसा पहले था.
वर्ष 1932 में लास एंजिल्स ओलंपिक में हिस्सा लेने के लिए टीम चुनी जानी थी. आईएचएफ ने आर्मी सर्विस कंट्रोल बोर्ड को ध्यानचंद को महज एक पखवाड़े के लिए रिलीज करने का अनुरोध किया. सेना ने इस अनुरोध को खारिज कर दिया. उनकी प्लाटून ने उन्हें इस प्रतियोगिता में जाने के लिए छुट्टी नहीं दी.
इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं लेने का मतलब था टीम में नहीं चुना जाना. ध्यानचंद को लगने लगा कि वो इस बार ओलंपिक में नहीं जा पाएंगे.
अंग्रेज सेना के कठोर अनुशासन को देखते हुए वह अपनी बात कह भी नहीं सकते थे. वह सेना की सबसे निचली पायदान पर ही थे. टीम चुनने के लिए हुई सेलेक्शन प्रतियोगिता में वह नहीं जा पाए. ध्यानचंद का मन शंकाओं से भरा था. जब टीम की घोषणा हुई तो उसमें उनका नाम शामिल था. वजह थी पिछले ओलंपिक और अन्य घरेलू प्रतियोगिताओं में उनका शानदार प्रदर्शन. चार साल पहले ओलंपिक में गई टीम से चार खिलाडिय़ों को ही दोबारा चुना गया था. अबकी बार उनके छोटे भाई रूप सिंह को टीम में चुने गए थे.
1932 के ओलंपिक में फिर स्वर्ण पदक जीतने के बाद जब टीम वापस लौटी तो मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनस पर उसका शानदार स्वागत हुआ. झांसी में उनके क्लब झांसी हीरोज ने भी उनके सम्मान में जोरदार पार्टी दी,. जिस समय वह झांसी में ठहरे हुए थे, उसी दौरान उन्होंने वहां की सेना की टीम के खिलाफ झांसी हीरोज से एक मैच खेला.
इसके बाद अफवाह फैल गई कि ध्यानचंद सेना से त्यागपत्र देकर रेलवे ज्वाइन करने जा रहे हैं. रेलवे में उन्हें बहुत बढ़िया नौकरी ऑफर की गई है. बात सही भी थी. आईएचएफ के तत्कालीन अध्यक्ष हेमन रेलवे बोर्ड के सदस्य थे. उन्होंने ध्यानचंद को रेलवे में एक अच्छी नौकरी का प्रस्ताव दिया था. अब करें तो क्या करें, ये उनकी समझ में नहीं आ रहा था.
ध्यानचंद की बटालियन उन दिनों लाहौर में थी, जिसके कमांडिंग अफसर जनरल डंकन थे, जिनसे ध्यानचंद की लाहौर में मुलाकात हुई. उन्होंने आश्वस्त किया कि सेना में उनका ध्यान अच्छी तरह रखा जाएगा. यकीनन अगर ध्यानचंद की मुलाकात जनरल डंकन से नहीं हुई होती तो वह शर्तिया सेना की नौकरी छोड़ देते. हालांकि वह इस बात से ज्यादा खुश थे कि उन्हें सेना की नौकरी नहीं छोड़नी होगी. सेना में जल्द ही कैप्टेन रैंक देकर उन्हें अफसर बना दिया गया. बाद में वह सेना में मेजर के पद से रिटायर हुए.
इसी तरह का वाकया वर्ष 1936 के बर्लिन ओलंपिक का है. तब ध्यानचंद भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे. जर्मनी पर एडोल्फ हिटलर का शासन था. उसे लगता था कि पूरी दुनिया में जर्मनी से बेहतर न तो कोई देश है और जर्मनों सरीखी कोई नस्ल. 15 अगस्त 1936 को फाइनल में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया. हिटलर इस मैच में जर्मनी को जीतते हुए देखने आया था.
जब उसने अपनी टीम को हारते हुए देखा तो बीच में उठकर चला गया. मैच से पहले वाली रात को बर्लिन में जमकर बारिश हुई थी, इसी वजह से मैदान गीला था. भारतीय टीम के पास स्पाइक वाले जूतों की सुविधा नहीं थी और सपाट तलवे वाले रबड़ के जूते लगातार फिसल रहे थे. इसके चलते ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद जूते उतारकर नंगे पांव खेलना शुरू किया. उनका खेल इस तरह का था कि जर्मनी की टीम असहाय सी हो गई थी. भारतीय टीम ने आसानी से स्वर्ण पदक पर कब्जा जमा लिया.
जब हिटलर का प्रस्ताव ठुकराया
अगले दिन हिटलर ने भारतीय कप्तान ध्यानचंद को मिलने के लिए बुलाया. ध्यानचंद ने हिटलर की क्रूरता के कई किस्से-कहानी सुन रखे थे. इसलिए वो हिटलर का आमंत्रण पत्र देख चिंतित हो गए कि आखिर तानाशाह ने उन्हें क्यों बुलाया है. डरते-डरते हिटलर से मिलने पहुंचे. लंच करते हुए हिटलर ने उनसे पूछा कि वह भारत में क्या करते हैं? ध्यानचंद ने बताया कि वह भारतीय सेना में मेजर हैं. हिटलर ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वह जर्मनी आ जाएं और कहीं ज्यादा बड़े पद पर जर्मनी की सेना से जुड़ जाएं और पैसा वह जितना चाहें ले लें. ध्यानचंद ने विनम्रता से प्रस्ताव को ठुकरा दिया, क्योंकि उनके रग-रग में देशभक्ति समाई हुई थी. बाद में भी उनके सामने कई बार बहुत अच्छे प्रस्ताव विदेशों से आए लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया.