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यूपी: लखनऊ में बंदरों पर कई चरणों के ट्रायल के बाद मिली थी स्वदेशी कोवैक्सीन। .

यूपी: लखनऊ में बंदरों पर कई चरणों के ट्रायल के बाद मिली थी स्वदेशी कोवैक्सीन। .


लखनऊ। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च आईसीएमआर के महानिदेशक डॉ. बलराम भार्गव किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के एक आयोजन में शनिवार को आए थे। यहां पर उन्होंने स्वदेशी वैक्सीन की खोज की कहानी बताई। डॉ भार्गव के द्वारा लिखी गयी किताब 'गोइंग वायरल' के अध्याय में यह कहानी बयां की गयी है। वहीं डॉ भार्गव ने बताया कि किसी वैक्सीन की खोज के लिए कई चरणों में ट्रायल होता है। इसमें खरगोश, चूहा और फिर बंदर आते हैं। कोरोना संक्रमण काल के दौरान जब भारत अपनी पहली वैक्सीन बनाने की तैयारी कर रहा था तो उसे कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा। 

वहीं इनमें से सबसे बड़ी मुसीबत रही प्रीक्लिनिकल ट्रायल में बंदरों की खोज करना। चूहा और खरगोश पर प्रीक्लिनिकल ट्रायल में शोध करने के बाद भारत में उन बंदरों को खोजना जिस पर वैक्सीन का ट्रायल किया जा सकता है, काफी मुश्किल था। वहीं भारत में बंदरों की ब्रीडिंग फैसिलिटी अब तक कहीं भी नहीं है। विश्व भर में अलग अलग शोध के लिए बंदर चीन से मंगाए जाते हैं। यहां तक की एस्ट्रेजनेका वैक्सीन के ट्रायल के लिए भी अमेरिका ने चीन से ही बंदरों को मंगाया था। 

वहीं भारत बंदरों को चीन से नहीं मंगाना चाहता था। ऐसे में देश में ही बंदरों की खोज शुरू हुई। परेशानी यह थी कि कोरोना काल के दौरान जब बंदरों को कुछ खाने पीने के लिए नहीं मिल रहा था तो उन्होंने जंगलों का रुख कर लिया था। ऐसे में बंदरों के लिए वन विभाग, एनीमल हैसबंडरी जैसे तमाम विभागों से पहले मदद मांगी गई और फिर जंगलों में बंदरों की खोज के बाद उन पर शोध के लिए अनुमति ली गयी।

बता दें कि डॉ भार्गव कहते हैं कि इस शोध के लिए हमें विभागों से समय पर मदद मिली और जल्द ही अनुमति भी मिली। वैक्सीन के ट्रायल के लिए कर्नाटक, तेलंगाना और महाराष्ट्र के सीमाओं से सटे जंगलों से बीस जंगली बंदर पकड़कर आइसीएमआर की एनआईवी प्रयोगशाला लाए गए, पहले इन सभी बंदरों की स्वास्थ्य के परीक्षण कर यह देखा गया कि उन पर वैक्सीन ट्रायल किया जा सकता है या नहीं। उनके स्वस्थ मिलने के बाद वैक्सीन का ट्रायल शुरू किया गया।

वहीं वैक्सीन के ट्रायल में दुश्वारियां यहीं खत्म नहीं हुई। बंदरों को वैक्सीन तो लगा दी गई। अब ब्रांकोस्कोपी के माध्यम से कोरोना वायरस बंदरों के गले तो कौन पहुंचाएं? यह संकट खड़ा गया है। डॉ. भार्गव ने बताया कि सेना से विशेषज्ञों की मांग की गई। दो विशेषज्ञ मिलने के बाद बंदरों के गले में ब्रांकोस्कोपी के माध्यम से वायरस दाखिल कराए गए। बंदरों के शरीर में कोरोना इंजेक्ट करने के बाद 14 दिन बाद जांच कराई गई। जांच में वायरस का प्रभाव नहीं दिखा। यह नतीजा हम सभी के लिए उत्साह प्रदान करने वाला साबित हुआ। 

वहीं डॉ. बलराम भार्गव ने कहा 68 दिनों तक बंदरों की निगरानी की गई। उन्होंने बताया कि कोरोना से मुकाबले में स्वदेशी कोवैक्सीन कारगर है। डा. बलराम भार्गव ने बताया कि इस अनुभव के बाद हमने बंदरों के लिए ब्रीडिंग सेंटर की सुविधा शुरू करने के के लिए प्रयास किए और हमारा प्रयास फलीभूत रहा है। जल्द ही हैदराबाद और मुंबई के पास बंदरों के लिए दो ब्रीडिंग सेंटर तैयार किए जाएंगे। इससे शोध के नये आयाम सामने आएंगे।