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यूपी: वाराणसी बीएचयू में पौधों को लगेगा बस एक टीका, पौधे की दस पीढ़ियों तक मिलती रहेगी सुरक्षा।
वाराणसी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के वनस्पति विज्ञानी डा. प्रशांत सिंह और उनकी टीम ने एक ऐसा टीका विकसित किया है, जिसे पौधों को एक बार लगा देने पर दस पीढ़ियां रोग और जीवाणुओं के हमले से सुरक्षित रहेंगी। टीके का जौ और गेहूं के पौधों पर सफल प्रयोग हो चुका है। विज्ञानी ने इसे डिफेंस प्राइमिंग स्ट्रेटजी बताते हुए ग्रीन वैक्सीन (हरित टीका) नाम दिया है। इस टीके के बाद किसान को पौधों की सुरक्षा के लिए अनावश्यक खाद, कीटनाशक देने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
वहीं यह टीका दरअसल एक पैथोजन (पैथोजन-रोगजनक यानी ऐसे सूक्ष्मजीव, जिनके कारण कई तरह की बीमारियों का जन्म होता है) है। डा. प्रशांत सिंह व उनकी शोध छात्रा मेनका तिवारी ने इसे सबसे पहले जौ में लगने वाले लीफ ब्लाच बीमारी के कारक कवक से तैयार किया। इसके बाद इसे एक स्वस्थ पौधे में दिया गया। इससे पौधे में रोगों व जीवाणुओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकास हो गया।
बता दें कि डा. सिंह बताते हैं कि प्रत्येक जीव वह मनुष्य हो या वनस्पतियां, सबमे प्राकृतिक रूप से एक प्रतिरक्षण प्रणाली होती है। इस टीके में रोगकारक जीवाणुओं की अत्यंत सूक्ष्ममात्रा पौधे के शरीर में पहुंचा गई। जीवाणु के अंदर इसके पहुंचते ही पौधे की प्रतिरक्षण प्रणाली रोग के प्रति सतर्क हो जाती है। इस सतर्कता के चलते पौधे में उसकी प्राकृतिक प्रतिरक्षण प्रणाली निरंतर मजबूत होती चली जाती है। शोध में पाया गया कि यह टीका पौधे की प्रतिरक्षण प्रणाली को केवल इसी रोग के प्रति ही नहीं, अन्य रोगों व वाह्य हमलों के लिए अलर्ट मोड में तैयार कर देता है। फिर इसके बाद पौधा स्वयं ही किसी रोग व जीवाणु के हमले से अपनी सुरक्षा करने में सक्षम हो जाता है।
वहीं प्रयोग के दौरान विज्ञानियों ने पाया कि एपीजेनेटिक्स के माध्यम से इस ग्रीन टीका का प्रभाव पौधे में पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होता गया। विज्ञानियों की टीम ने अब तक दस पीढ़ी तक इसके प्रभाव का अध्ययन किया है, आगे की पीढ़ियों के लिए उनका अध्ययन जारी है। जौ और गेहूं के बाद टीके के प्रभाव का अध्ययन अन्य फसलों के लिए भी जारी है। डा. सिंह बताते हैं कि अन्य पौधों पर भी इसका प्रयोग सफल रहा तो फिर कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन होगा। फसलों को रोगों से बचाव के लिए अलग से दवाएं और कीटनाशक आदि नहीं देना होगा। पौधा स्वयं में इतना सक्षम हो सकेगा कि मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्वों को ग्रहण कर सकेगा, इससे खाद की बचत भी होगी।
वहीं दूसरी ओर पीढ़ी दर पीढ़ी इस विशेषता के स्थानांतरण से किसान अपनी ही फसल से बीज भी प्राप्त कर उसका उपयोग अगली फसल के लिए कर सकेगा। इस तरह खेती में लागत न्यूनतम हो जाएगी। इस प्रणाली का खेत की मिट्टी, पानी, हवा और पौधों की गुणवत्ता पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है। इससे कृषि क्षेत्र में रासायनिक तत्वों के प्रयोग से होने वाले वातावरण प्रदूषण पर विराम लगेगा और कृषि क्षेत्र में सतत विकास की परिकल्पना को साकार किया जा सकेगा।
वहीं इस टीका का प्रयोग अभी अन्य फसलों के लिए भी किया जा रहा है। प्रयोग सफल होते ही इसे व्यावसायिक प्रयोग के लिए उतारा जाएगा। इस तरह एक साल या उससे कुछ अधिक समय इसे किसानों तक पहुंचने में लग सकता है।