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यूपी: वाराणसी संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय प्रकाशन के फर्जी मोहर घोटाले में उलझी ईओडब्ल्यू।

यूपी: वाराणसी संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय प्रकाशन के फर्जी मोहर घोटाले में उलझी ईओडब्ल्यू।


वाराणसी। आर्थिक अपराध अनुसंधान संस्थान ईओडब्ल्यू संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रकाशन घोटाले की जांच अब तक पूरी नहीं कर सकी है। जबकि ईओडब्ल्यू ने इस मामले में अब तक विश्वविद्यालय से जुड़े 15 कर्मचारियों का बयान ले चुकी है। इसमें दो पूर्व कुलपति भी शामिल है। इसके बावजूद फर्जी मोहर के रहस्य से अब तक पर्दा नहीं उठ सका है। 

वहीं ईओडब्ल्यू की जांच फर्जी मोहर पर आकर अटक गई है। इसके पीछे जांच के नाम पर कोरम करना बताया जा रहा है। विश्वविद्यालय के प्रकाशन संस्थान का मानना है कि ईओडब्ल्यू ने प्रकाशन घोटाले की जांच ठंडे बस्ते में डाल दी है। शासन ने दुर्लभ पांडुलिपियों के प्रकाशन के लिए विश्वविद्यालय को वर्ष 2001 से 2010 के बीच दस करोड़ 20 लाख 22 हजार रुपये का अनुदान दिया था। 

वहीं दूसरी तरफ़ दुर्लभ पांडुलिपियों के प्रकाशन के मद में तीन करोड़ 66 लाख 96 हजार 237 रुपये का ही उपयोग किताबों के प्रकाशन में किया गया। आरोप है कि शेष छह करोड़, 53 लाख 23 हजार 763 रुपये बगैर ग्रंथों का प्रकाशन केे ही मुद्रकों को फर्जी तरीके से भुगतान कर दिया गया। 

वहीं इसमें आनंद प्रिटिंग प्रेस को तीन करोड़ 74 लाख 884 रुपये, शारदा प्रिटिंग प्रेस को एक करोड़ 69 लाख 740 रुपये, तारा प्रिटिंग वर्क्स को सात कराेड़ 61 लाख 564 रुपये, विजय प्रिटिंग प्रेस को दो करोड़ 69 लाख 84 हजार 873 रुपये तथा गौरी शंकर प्रेस को दो कराेड़ 65 लाख 32 हजार 581 रुपये भुगतान किया गया है। इसके लिए तत्कालीन कुलपति प्रो. वी. कुटुम्ब शास्त्री के हस्ताक्षर के फर्जी मुहर का इस्तेमाल किया गया।

बता दें कि वहीं इस फंडाफोड़ में आठ जुलाई 2009 में कुलपति आवास पर मिले फर्जी मुहर से हुआ। उस समय फर्जी मुहर का प्रकरण काफी सुखियों में था। विश्वविद्यालय प्रशासन ने बड़े पैमाने पर प्रकाशन घोटाले को देखते हुए वर्ष 2009 में प्राथमिकी भी दर्ज करवाई थी। वहीं शासन ने इसे गंभीरता से लेते हुए इसकी जांच ईओडब्ल्यू् को सौंप थी। दूसरी ओर विश्वविद्यालय प्रशासन ने वर्ष 2015 में प्रकाशन घोटाले की जांच की जिम्मेदारी प्रकाशन निदेशक डा. पद्माकर मिश्र को सौंपी थी। पांच वर्ष लंबे समय पर प्रकाशन निदेशक ने जुलाई 2020 में अपनी रिपोर्ट तत्कालीन कुलपति को सौंपी थी। 

वहीं विवि प्रशासन ने आंतरिक जांच रिपोर्ट को डस्टबीन में डाल दिया। उधर वर्ष 2020 में ईओडब्ल्यू् की नींद खुल गई। इस क्रम में ईओडब्ल्यू् ने तत्कालीन कुलपति, वित्त अधिकारी, लेखा विभाग के 15 कर्मचारियों को नोटिस दिया था। सभी कर्मचारियों ने ईओडब्ल्यू को बयान ले लिया है। फिर भी रिपोर्ट अब तक जारी कर सकी है।

बता दें कि वहीं बैगर ग्रंथों के प्रकाशन के करोड़ों रुपये के घोटाले की जांच लगभग पूरी हो गई है। वहीं जिस फर्जी मुहर के आधार पर भुगतान किया गया। उसकी गुत्थी अब भी नहीं सुलझ पाई है। बयान में सभी कर्मचारियों ने अपना-अपना पल्ला झाड़ लिया है। फर्जी मुहर गुत्थी भी जल्द ही सुलझा ली जाएंगी।