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यूपी: वाराणसी के पं. बिरजू महाराज ने हमेशा दिल से माना काशी को घरौंदा लखनऊ को अपना घराना।
वाराणसी। अवध क बिरजू महाराज अ काशी क पं. रामसहाय जी क पुरखा त एके रहलन न बचऊ। महाराज जी जिंदगी भर इ आन निबहलन काशी के घरौंदा अ लखनऊ के घराना मनलन। पहले सिसकियां और खुद को संभालते-संभालते भी अन्ततः फफक पड़ते हैं कबीरचौरा संगीत बस्ती के वयोवृद्ध संगीत महारथी पं. कामेश्वर नाथ मिश्र। नृत्य सम्राट के निधन की सूचना मिलने के बाद से ही शोकाकुल कामेश्वर जी के आंखों से ढरती लोर (आंसू) की बूंद-बूंद के साथ धरक रहे हैं ढेर सारी शेष स्मृतियों के बिंब-प्रतिबिंब।
वहीं इनमें से किसी में तबले के धुरंधर दिवंगत पं. किशन महाराज के साथ उनकी ठिठोलियों के अक्स हैं तो किसी में ज्ञान प्रवाह में आयोजित गुलाबबाड़ी में जीवंतत प्रस्तुति की परछाई। किसी में वार्धक्य की मजबूरी के चलते संकटमोचन संगीत समारोह के मंच पर बैठे-बैठे ही रसिकजनों के लिए परिवेषित (परोसना), उपज (भाव मुद्राओं का स्थिर प्रदर्शन) के लास्य की उनींदी सी अंगड़ाई।
वहीं ढांढसों के बाद भी भाव विह्वल हुए जा रहे कामेश्वर भइया बताते हैं हर बार भेंट होने पर उनकी रटी-रटायी चुटकी यही होती थी। कामेश्वर हमें त यार बनारस क दुईय चीज ह प्यारी। एक ठे समधियाने क मीठ-मीठ गारी अ दूसर ससुराल क खातिरदारी। बिलखते हुए कामेश्वर जी कहते हैं अब उ अलमस्त अंदाज भला उ कहां देखाई। चल गयल एही मोहल्ले क ठसकदार समधी, एही बस्ती क लजाधुर जवांई।
बता दें कि पं. बिरजू महाराज का विवाह बनारस संगीत घराने के सलाका पुरुष पं. श्रीचंद्र मिश्र की दुहिता (पुत्री) अन्नपूर्णा से हुआ था। जबकि सारंगी के अनन्य साधक पं. हनुमान मिश्र उनके समधी थे। हनुमान जी के छोटे बेटे पद्मविभूषण साजन मिश्र (राजन-साजन फेम) का विवाह बिरजू महाराज की पुत्री कविता से हुआ था। याद है।
वहीं कामेश्वर जी को आज भी वह उमगता दिन जब पं. शंभु महाराज (बिरजू महाराज के चाचा) अपने भतीजे की सजीली बारात लेकर बनारस आए थे। जनवासा बनाया गया था। पिपलानी कटरा के पारशवर्ती बगीचे (अब रूप परिवर्तित) बताते हैं कामेश्वर जी की उन दिनों के चलन के अनुसार बरात के साथ आए भाड़ों ने ऐसा स्वांग रचाया कि सजीला दूल्हा भी ठहाका लगाने से खुद को नहीं रोक पाया।
वहीं दूसरी तरफ़ किस्सागोई कर रहे कामेश्वर जी के अनुसार बहुत सारी प्रस्तुतियों के बाद दो भांड वहां पहुंचे जहां किशन महाराज व बिरजू महाराज के चाचा शंभु महाराज बतकही में तल्लीन थे। पहले भांड ने रूपक बांधा अरे इ कईसी सहोदर जोड़ी देखन में एक्के लगे पर चूक है थोड़ी-थोड़ी। एक दपदप गोर (पं. किशन महाराज), एक निपटे सांवर (शंभु महाराज) कइसे चलीहें मिताई क बांवर। दूसरे भांड ने अदा ली अच्छी खासी और बोला इत विधि का लेखा।
वहीं एक का जन्म अंधियारी अमावस, दूजे का पूरनमासी। संगीत के दोनों महारथियों पर भड़इति की ऐसी मार कि पूरी महफिल ठठाकर हंस पड़ी। खुद दोनों उस्ताद भी इस मनोविनोद से नहीं रहे बरी। यह बात और कि इस रोचक किस्सा बयानी के बाद पं. कामेश्वर मिश्र की खुद की आवाज रुंध जाती है। होठों पर आई हल्की सी स्मित रेखाओं के बाद भी हिचकियां बंध जाती हैं।