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यूपी: वाराणसी में पंडित बिरजू महाराज जयंती पर बोले कि विधना ने बख्श दिए होते सिर्फ 18 दिन तो कबीरचौरा का नजारा और होता।

यूपी: वाराणसी में पंडित बिरजू महाराज जयंती पर बोले कि विधना ने बख्श दिए होते सिर्फ 18 दिन तो कबीरचौरा का नजारा और होता।

                          Vinit Jaiswal City Reporter

वाराणसी। काश! विधना ने यदि अपने विधान से महज 18 दिन और बख्शे होते तो शुक्रवार को कबीरचौरा संगीत बस्ती का नजारा ही कुछ और होता। हम सभी कला साधक नर्तन सम्राट बिरजू महाराज की जयंती के स्थान पर उनके जन्म दिवस समारोह पर उल्लास का मेला सजा रहे होते। बजाय अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करने के उनके नूपुरों की झंकार को नमन करते हुए उनके सेलफोन पर बधाइयों का रेला पठा रहे होते।

वहीं समधियाने के पद से होता कुछ हास-परिहास, एक दूसरे के सामने भले न हों जम कर चलते बनारसी पिंगलों व लखनवी अंदाज के इंगलों के तीर और फोन पर ही गूंजता होता उनका उन्मुक्त अट्ठाहस। कोई चंद रोज पहले ही बस यूं ही महाप्रयाण पर निकल गए बिरजू महाराज की स्मृतियों को स्मरण कर उनकी जयंती की पूर्व संध्या पर भावातिरेक में लरज उठते हैैं कबीरचौरा संगीत घराने के बुजुर्गवार सदस्य पं. कामेश्वर मिश्र के शब्द।

बता दें कि रिश्ते में बनारस के जवांई और यहीं के समधी होने के दो-दो रिश्तों में बंधे नर्तन सम्राट के कम से कम दो जन्म दिवस समारोहों में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। खांटी पारिवारिक परिवेश में आयोजित इन उत्सवों में भागीदारी का उल्लास रौनकों की बारिश में भीगी किसी इंद्र सभा में शिरकत से कम ठाटदार नहीं हुआ करता था। 

वहीं जब महफिल गुंजनों की हो तो स्वाभाविक है गायन, वादन व नृत्य की त्रिवेणी के संगम का संयोग लखनऊ वाया मैहर, भोपाल से लेकर मुंबई तक के कहानी-किस्सों का योग और साथ में अनवरत चलता बनारसी व लखनवी स्वाद की मिश्रित रेसिपी में पगे व्यंजनों का बाल भोग।

वहीं कभी महाराज जी अगर इस सुयोग पर दिल्ली-लखनऊ या अन्यत्र भी कहीं हों तो इस दिन का इंतजार बड़ा बेसब्र हुआ करता था। हम सब फोन खड़का कर उन्हें बधाइयां पठाते थे। बदले में आशीषों के भरे टोकरे का उपहार पाते थे। इस बार भी इसी सुयोग का इंतजार था किंतु विधि को तो कुछ और ही स्वीकार था। सो आइए, हरि इच्छा बलियसी की विधि को मान देते हैं। अनंत पट पर बढ़े चले जा रहे कथक के पुरोधा महाराज जी की शेष स्मृतियों को अश्रुधाराओं में भीगी लरजती हथेलियों का प्रणाम देते हैं।

वहीं चलते-चलते कामेश्वर जी अचानक ही हाथ पकड़ कर फफक पड़ते हैं। अपने जीवन के उन अममोल क्षणों को याद कर जब तबला सम्राट किशन महाराज के सम्मेलन में पहुंचने में विलंब के कारण बिरजू महाराज ने संगत के लिए मुझे पाश्र्व में बैठाया और पीठ पर हाथ रख कर मेरा हौसला बढ़ाया। 

वहीं इसी से जुड़ती है वह यादगार रात भी जब महाराज जी को पान की तलब लगी और उन्होंने मुझे साथ में लेकर पूरे हैदराबाद शहर का चक्कर लगवाया और बंद हो रही एक पान की दुकान को खुलवा कर उस खांटी बनारसी दुकानदार के हाथों से चांदी बर्क चढ़ा बीड़ा लेकर मुंह में घुलाया। महाराज इतने पर भी बाज न आए और अपना परिचय देने के बाद मंत्र मुग्ध उस बनारसी पान वाले से दस चौघड़ा पान का थैला भी बंधवा लाए।