HIMACHAL PRADESH NEWS
हिमाचल प्रदेश: शिमला में विश्व रेडियो दिवस पर रेडियो पर बेअसर इंटरनेट का असर।
हिमाचल प्रदेश। शिमला में आज के इंटरनेट युग ने रेडियो को पछाडऩे का भरसक प्रयास किया, मगर रेडियो पर सुरीली आवाज के साथ मनोरंजन व ज्ञान का जादू कम नहीं हुआ है। एफएम (फ्रीक्वेंसी माडूलेशन) ने रेडियो को उजडऩे से बचा लिया है। एफएम रेडियो आधुनिकता के बाजार को समझते हुए ताल से ताल मिलाकर आगे बढ़ रहा है।
वहीं रेडियो के श्रोता हर दौर में बदलते रहे हैं और उनकी पसंद भी नए दौर के साथ स्वीकारी है। भागमभाग भरी जिंदगी में रेडियो घर में चाहे सुनने का समय न मिले, लेकिन कार, बस और परिवहन के दूसरे साधनों में रेडियो रात-दिन साथ निभाता है।
वहीं हालांकि रेडियो सुनने का शौक नई पीढ़ी के लिए कुछ कम हो रहा है। पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी रेडियो सुनने के दीवाने हैं। हिमाचल में चाहे प्रादेशिक समाचार हों या फिर कृषि-बागवानी कार्यक्रम, चंबयाली, मंडयाली, कांगड़ी, महासूवी क्षेत्रीय भाषा के कार्यक्रम। इन कार्यक्रमों ने बदलते समय में भी अपनी प्रासंगिता को जिंदा रखा है। 90 के दशक तक लोग रेडियो पर प्रस्तावित होने वाले कार्यक्रमों की सिगनेचर ट्यून तक याद रखते थे। दो दशक पहले रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सुनना आम था।
वहीं अब बाजार में ऐसे रेडियो सेट उपलब्ध नहीं है, जिनमें मीडियम वेव्स प्राइमरी चैनल लगता हो। अब ऐसे रेडियो सेट आए हैं जिनमें एफएम चैनल बिना किसी रुकावट के चलता है। आज भी कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर रेडियो का सिग्नल बहुत मुश्किल से मिलता है। मैं तो इंटरनेट मीडिया पर हर तरह की जानकारियां प्राप्त कर लेता हूं।
वहीं संगीत सुनने के लिए भी यूट्यूब है। इतना जरूर कहना चाहूंगा कि घर पर मेरी मां की सुबह रेडियो से होती है और शाम को प्रादेशिक समाचार सुनने के बाद रेडियो बंद होता है। कई बार यदि रेडियो बंद हो तो मैं मां से पूछता भी हूं कि आज रेडियो क्यों नहीं लगाया। पुरानी फिल्मों के गाने रेडियो पर सुनना अच्छा लगता है।
वहीं हमारी पीढ़ी के लोगों के लिए रेडियो तो जीवनसाथी जैसा रहा है। बचपन में बाल गोपाल, चुन्नु-मुन्नु कार्यक्रम से लेकर रविवार को कहानी, नाटक सुनना तय कार्यक्रम का हिस्सा होते थे। मुझे याद है कि मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ती थी और तबसे लेकर रेडियो से रिश्ता रहा है। परीक्षा परिणाम भी रेडियो ही बतलाता था। आज के दौर में रेडियो सुनते हैं मगर पहले की तरह समय नहीं मिलता।
वहीं शायद 1975 का समय रहा होगा। हमारे घर में रात सवा नौ बजे हवा महल कार्यक्रम सुनने के लिए सब इकट्ठा होकर बैठते थे। तब मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं होता था। रेडियो मनोरंजन करने के अलावा ज्ञान विज्ञान का भी माध्यम होता था। मैंने बचपन के दिनों में बाल गोपाल कार्यक्रम खूब सुना है। यह मानना पड़ेगा कि इंटरनेट ने रेडियो के श्रोताओं को कम किया है।