UP news
लखनऊ : उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में सिर्फ वोट बैंक ही रहे पिछड़े मुस्लिम।
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के विधानसभा के गठन के दौरान पिछड़े मुसलमान राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ वोट बैंक ही रहे। उसको मजहब कहो या सियासत कहो, खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले साहित्य और संस्कृति में गहरे तक उतरे कैफी आजमी के यह शब्द मुस्लिम सियासत की सतह को भी उसी गहराई से छूते नजर आते हैं।
वहीं आज जब राजनीतिक दलों की हार-जीत के दांव मजहबी जुनून बनते नजर आ रहे हैं तो वास्तविकता का आईना उन नुमाइंदों को कांच की तरह चुभ रहा है, जो देख रहे हैं कि सियासी एकजुटता के मुलम्मे के भीतर यह कौम अगड़े-पिछड़े की खाई आज तक नहीं पाट पाई। जिन पिछड़ों के बलबूते अगड़े सत्ता के झंडाबरदार बनते रहे, वही पिछड़े मुस्लिम वोटबैंक बने, लेकिन खाली हाथ रह गए। सत्ता की डोली के लाचार कहार बने रह गए।
वहीं उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में मुस्लिमों की हिस्सेदारी लगभग 19-20 प्रतिशत है। इसमें भी 70 प्रतिशत पिछड़े मुस्लिम हैं। संख्या बल की इस ताकत के बावजूद पिछड़े मुस्लिम क्यों पिछड़ते चले गए, इसे पूर्व मंत्री अम्मार रिजवी समझाते हैं, जो कि राजनीति में पांच दशक बिता चुके हैं। वह मानते हैं कि पिछड़े मुस्लिम शैक्षिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ गए। इसके लिए प्रदेश में मुस्लिम की राजनीति करने वाले दलों के साथ खुद यह समाज जिम्मेदार है।
वहीं करीब पचास वर्ष तक कांग्रेस में रहे रिजवी बताते हैं कि बंटवारे के दर्द से डरे मुसलमानों को कांग्रेस डराती रही कि भाजपा ताकत में आई तो आप पर हमला कर देगी। मुस्लिम डरकर कांग्रेस के पक्ष में वोट करता रहा। फिर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कमजोर हुई तो यही रणनीति समाजवादी पार्टी ने अपना ली।
वहीं वह भी भाजपा से डराकर मुस्लिमों को अपने साथ एकजुट करने लगी। वह मानते हैं कि इस एकजुटता की प्रतिक्रिया में हिंदू भी एकजुट होने लगा, जिसमें नुकसान मुसलमानों का होने लगा। ध्रुवीकरण जब भी होगा, मुस्लिम नुकसान उठाएगा। तीन वर्ष पहले भाजपा में शामिल हो चुके अम्मार रिजवी कहते हैं कि भाजपा हराओ के जुनून में पिछड़े मुस्लिम अपने हक की बात उठाना भूल गए। शिक्षा, रोजगार की बात करना भूल गए। यहां तक कि उनके अंदर इस राजनीति ने ऐसा भ्रम भर दिया कि प्रतियोगी परीक्षाओं में उनके साथ भेदभाव होगा, इसलिए वह प्रतियोगी परीक्षाओं में न के बराबर हिस्सा लेते रहे।
वहीं मुस्लिमों में काफी चौड़ी हो चुकी अगड़े-पिछड़े की खाई का दर्द आल इंडिया मोमिन कान्फ्रेंस के अध्यक्ष आरिफ अंसारी के दिल में भी है। वह कहते हैं राजनीति पर अगड़े मुस्लिमों का कब्जा है। मुस्लिम लीडरशिप उन्हीं के पास है। पिछड़े सत्ता से दूर रहे, इसलिए पिछड़े ही रहे। वह बताते हैं कि पिछड़े मुस्लिमों की अधिक आबादी के बावजूद उनके नुमाइंदे कम टिकट पाते हैं।
वहीं और कम ही जीतते हैं। पहले जरूर अपनी जाति वाले को जिताने के लिए पिछड़े मुस्लिम एकजुट हो जाते थे, लेकिन कुछ समय से वह सिर्फ भाजपा को हराने के प्रयास में यह भी नहीं देखते कि कौन उनकी पिछड़ी जाति का मुस्लिम है और कौन अगड़ी जाति से है।
वहीं आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज (उत्तर प्रदेश) के अध्यक्ष वसीम राईन सिर्फ आरोप नहीं लगाते, तर्क भी रखते हैं कि कैसे पिछड़े मुस्लिमों की राह में रोड़े अगड़े मुस्लिम नेताओं ने अटकाए हैं। उनका कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत दलित-पिछड़ों को जो अधिकार मिलते हैं, उसमें सिख और बौद्ध तो शामिल कर लिए गए, लेकिन केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार में प्रभावशाली रहे अगड़े मुस्लिम नेताओं ने उसमें मुस्लिम को शामिल नहीं होने दिया।
वहीं इसके पीछे वह मानते हैं कि चूंकि पिछड़े यानी पसमांदा मुस्लिम समाज की आबादी अधिक थी। उन्हें अधिकार मिल जाते तो वह आगे बढ़ जाते। उन्हें रोकने के लिए कांग्रेस के अगड़े मुस्लिमों ने पसमांदा समाज को पीछे धकेल दिया। वह तो तालीम में भी बराबर नहीं आने देना चाहते, लेकिन पिछड़े मुस्लिम अब पढ़ रहे हैं। हालांकि, राजनीति की राह अभी भी टेढ़ी है।
वहीं राईन का कहना है कि प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 86 सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं। उन पर हिंदू अनुसूचित ही लड़ सकते हैं, लेकिन मुस्लिम नहीं। यदि अनुच्छेद 341 के जरिए कांग्रेस पाबंदी नहीं लगाती तो पिछड़े मुस्लिम इन 86 सीटों पर भी अपना दावा कर सकते थे और राजनीति में उनकी भागीदारी जरूर बढ़ती। इससे खासतौर से पसमांदा मुस्लिम समाज का पिछड़ापन दूर होता।