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यूपी: वाराणसी में वाग्देवी की आराधना में लीन हुई देवाधिदेव की नगरी, मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा संग हुआ पूजन अनुष्ठान।
वाराणसी। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी पर शनिवार को देवाधिदेव महादेव की नगरी काशी विद्या, बुद्धि सहित ज्ञान और वाणी की अधिष्ठात्री देवी माता सरस्वती की आराधना में लीन रही। घरों में विधि विधान से माता सरस्वती की पूजा-आराधना की गई तो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय परिसर स्थित वाग्देवी मंदिर समेत देवालयों में कतार लगी रही।
वहीं पूजा मंडपों में विधि विधान से मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कर पूजन अनुष्ठान किए गए। इसके साथ सड़कें-गलियां गीत-भजनों से गुंजायमान हो उठीं। इस दौरान देवी को प्रिय पीत रंग की बहुलता दिखी। पीले वस्त्रों में सजे संवरे श्रद्धालुओं ने माता का पीत वस्त्र-आभूषण से शृंगार किया। उनकी पीले फूलों से झांकी सजाई। पीले फल और मिष्ठान के साथ ही केसर युक्त खीर भी समर्पित किया। संकल्प पूर्वक तिथि विशेष पर व्रत भी रखा।
वहीं ब्राह्मणग्रंथों के अनुसार वाग्देवी ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु व समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और सरस्वती हैं। इस प्रकार अमित तेजस्विनी और अनंत गुण शालिनी देवी सरस्वती को पूजा एवं आराधना के लिये माघ मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि निर्धारित है। माघ मास के शुक्ल की पंचमी तिथि को वसंत पंचमी पर्व मनाया जाता है।
वहीं इसे भगवती सरस्वती का आविर्भाव-दिवस भी माना जाता है। ऐसे में इसे श्रीपंचमी और वागीश्वरी जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। तिथि विशेष पर अपुच्छ मुहूर्त होने से मांगलिक कार्य, प्रतिष्ठान शुभारंभ समेत अन्य कार्यारंभ भी किए गए तो विद्यारंभ व अक्षरारंभ आदि अनुष्ठान किए गए।
वहीं वास्तव में भारतीय संस्कृति में व्रत, पर्व एवं उत्सवों की विशेष प्रतिष्ठा है जो हमारे जीवन को समुन्नत बनाते हुए विश्व बंधुत्व के साथ भारतीयता के परिचायक बने हुए हैं। इसमें माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी पर वसंत पंचमी यानी सरस्वती पूजन का विशेष महत्त्व है। भगवती सरस्वती सर्वदा शास्त्र-ज्ञान को देने वाली हैं। भगवती शारदा का मूलस्थान शशां सदन अर्थात् अमृतमय प्रकाशपुंज है।
वहीं जहां से वे अपने उपासकों के लिये निरंतर ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। उनका विग्रह शुद्ध ज्ञानमय, आनंदमय है। उनका तेज दिव्य एवं अपरिमेय है। वे ही शब्द ब्रह्म के रूपमें स्तुत होती हैं। सृष्टिकाल में परमब्रह्म की इच्छा से आद्य शक्ति ने अपने को पांच भागों में विभक्त कर लिया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा और सरस्वती के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से प्रकट हुई थीं।
वहीं उस समय श्रीकृष्ण के कंठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम ही सरस्वती हुआ। ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड में कहा गया है कि - आविर्बभूव तत्पश्चान्मुखत: परमात्मन:, एकादेवी शुक्लवर्णा वीणापुस्तकधारिणी।। वागधिष्ठातृ देवी सा कवीनामिष्टदेवता। श्रीमद्देवीभागवत और श्रीदुर्गासप्तशती में भी आद्यशक्ति द्वारा अपने-आप को तीन भागों में विभक्त करने की कथा प्राप्त होती है। आद्यशक्ति के ये तीनों रूप महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से जगद् विख्यात हैं। भगवती सरस्वती सत्त्वगुण संपन्ना हैं। इनके अनेक नाम हैं जिनमें से वाक्, वाणी, गी:, गिरा, भाषा, शारदा, वाचा, धीश्वरी, वागीश्वरी, ब्राह्मी, गौ, सोमलता, वाग्देवी और वाग्देवता आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।
बता दें कि वहीं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में ज्योतिष विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विनय पांडेय कहते हैं कि ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड में उल्लेख है कि माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भदिनेऽपि च। पूर्वेऽह्नि संयम कृत्वा तत्राह्नि संयतः शुचिः॥ यानी भगवती सरस्वती की आराधना कभी निष्फल नहीं होती। इसलिए शास्त्रों में नहि बंध्या सरस्वती कहा गया है। भगवती सरस्वती की पूजा हेतु आजकल सार्वजनिक पूजा पंडालों की रचना करके उसमें देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित करने व पूजन करने का प्रचलन दिखाई पड़ता है।
वहीं लेकिन शास्त्रों में वाग्देवी की आराधना व्यक्तिगत रूप में ही करने का विधान बतलाया गया है। सरस्वतीरहस्योपनिषद्, प्रपंचसार व शारदातिलक आदि ग्रंथों में भगवती सरस्वती के दिव्य स्वरूप व उनकी उपासना का वर्णन है। उनके व्रतोपवास संबंधी अनेक मंत्र, यंत्र, स्तोत्र, पटल तथा पद्धतियां भी वहां प्राप्त हैं।