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यूपी : काशी के पं. गागाभट्ट ने किया था छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक।

यूपी : काशी के पं. गागाभट्ट ने किया था छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक।

                        Vinit Jaiswal City Reporter

वाराणसी। देवभूमि-भारत को, चतुर्दिक रूप से समृद्ध बनाने में समय-समय पर देवी देवताओं, ब्रह्मर्षियों, मनीषियों, साधु-संतों, सन्यासियों, महापुरुषों, वैज्ञानिकों, कलाविदों, साहित्यकारों, समाजसुधारकों, शिक्षाविदों ने अपना अपना योगदान दिया है। जिनके योगदान को हम विविध पद्धती से स्मरण कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।

वहीं जैसे रामनवमी में प्रभु श्रीराम, शिवरात्रि में शिव, नवरात्रि में मां दुर्गा, बसंतोत्सव में मां सरस्वती इत्यादि को उत्सव के रूप में मनाते हैं। ऐसे ही राष्ट्रीय गौरव को पुनः स्थापित करने वाले हिंदू पद पादशाही परंपरा अथवा हिंदवी स्वराज को स्थापित करने वाले, समर्थ गुरु रामदास के शिष्य, कोणदेव के सुपौत्र, शाह जी भोसले व जीजाबाई के सुपुत्र, गुरिल्ला(छापेमार) युद्ध तकनीक के आविष्कारक, धर्मपालक, अष्टप्रधानमंत्रियों का निर्माण करने वाले छत्रपति (शासकों के शासक) शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को महाराष्ट्र के शिवनेरी दुर्ग में हुआ था।

वहीं जिन्हे हम आज उनके जन्मदिवस पर याद कर रहे हैं। इन्होंने अपने पराक्रम से स्वराज का बिगुल बजा कर “दिल्लीश्वरो, जगदीश्वरो वा” के मुगलति धारणा को नष्ट कि। वीर शिवाजी मात्र 28 वर्ष की आयु में कोंडाणा, पुरंदर, प्रतापगढ़, राजगढ़, चाकड़ जैसे 40 दुर्गों पर अपने स्वराज रूपी भगवा ध्वज को फहरा दिया। और उस समय के मुगल आतताई, दुर्दांत, अपने भाइयों का हत्यारा, भारतीय संस्कृति के प्रतीक मंदिरों व इमारतों को नष्ट करने वाला औरंगजेब के लिए सदैव सिरदर्द बने रहे और उसके सिपहसलार आदिलशाही, कुतुबशाही, अफजल खां, शाइस्ता खां, मिर्जा राजा जयसिंह के भी छक्के छुड़ा दिए।

वहीं अनादि काल से चले आ रहे भारतीय धर्म युद्ध नीति को तिलांजलि देकर तत्कालीन व कालांतर के भारतीय नरेशो के लिए पथ प्रदर्शक का भी कार्य किए, जिसमें राजस्थान के वीर दुर्गादास राठौड़, असम के राजा चक्रध्वज सिंह प्रमुख थे। वीर शिवाजी अत्यंत दूरदर्शी भी थे जो उस समय आ रहे यूरोपीय व्यापारियों जैसे अंग्रेजों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसीयों, डचों को भारत के भविष्य के लिए खतरा बन सकते हैं, इस खतरे को वह भली भांति भांप गए थे। 

वहीं अतः भारत के पश्चिमी तट के समुद्री मार्ग पर सिंधुदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग जैसे सुदृढ़ दुर्ग बनवा दिए और यहां नौसेना तैयार कर प्रतिहारी का कार्य किए। इसप्रकार अपने इन सभी कार्यों से वीर शिव जी उस समय भारत के विभिन्न क्षेत्रों में काफी लोकप्रिय हो चुके थे कि यह कोई महामानव है जो मुगलों व उनके लोगों से मोर्चा ले रहा है किंतु अपनी आयु के 40 वर्ष बाद भी उनका राज्याभिषेक नहीं हुआ था क्योंकि वह उस समय के वर्ण व्यवस्थानुसार किसी राज परिवार के क्षत्रिय कुल से नहीं आते थे बल्कि वह कुर्मी परिवार से ताल्लुक रखते थे।

वहीं किंतु पिता शाहजी भोंसले बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह के सेनापति थे अतः उनमें भी राजकीय गुण विद्यमान थे। जब 1665-66 ईस्वी में शिवाजी औरंगजेब के चंगुल से भागकर मथुरा, प्रयाग होते हुए काशी आए थे तो वह काशी के अस्सी निवासी एक विपन्न ब्राह्मण के घर कुछ दिनों के लिए शरण लिये थे और यहां पर वह पंचगङ्गा घाट पर अपनी पहचान छिपाकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध-तर्पण व पिंडदान भी किये थे। 

वहीं भाऊशास्त्री वझे अपने “काशीतिहास” नामक ग्रंथ में उल्लेख करते हुए कहते हैं कि श्राद्ध कराने वाले किशोर पुरोहित की अंजली को शिवाजी ने रत्नों से भर दिया, यहां तक कि अपने हाथ में पहने स्वर्ण कंकड़ आदि को भी दे दिया था। मोतीचन्द्र अपनी कृति “काशी का इतिहास” में लिखते हैं कि औरंगजेब इसी बात से क्रोधित होकर काशी पर आक्रमण कर। 

वहीं काशी रहते हुए उस समय शिवाजी ने पंचकोशी परिक्रमा करते हुए भोजूबीर के मार्ग पर अपनी कुलदेवी दक्षिणेश्वर काली मंदिर का निर्माण करके वहां भगवतीदुर्गा, गणेश, नरसिंह, भैरव बाबा की विग्रह मूर्तियां स्थापित कराई थी। इस प्रकार वीर शिवाजी जब यहां कुछ दिन व्यतीत किए थे तो यहां के पांडित्य परंपरा की ख्याति से काफी परिचित हुए थे और जब इनके राज्याभिषेक के लिए महाराष्ट्र के रायगढ़ व अन्य राज्यों के ब्राह्मणों ने औरंगजेब सहित अन्य कारणों से राज्याभिषेक कराने से मना कर दिया। 

वहीं दूसरी तरफ़ तो काशी के पंडित विश्वेश्वर भट्ट उर्फ गागाभट्ट को शिवाजी रायगढ़ आने के लिए निमंत्रण भेजें और गागाभट्ट जी अपने संयास आश्रम को भंग कर औरंगजेब व देश-दुनियां की चिंता न करते हुए अपने पांडित्य व साहस का परिचय करवाते हुए हिंदू रीति रिवाज से भारत के विभिन्न स्थलों की मिट्टी व विभिन्न नदियों के जल से स्नान कराकर शिवाजी का राज्याभिषेक कराया। 

वहीं इसके बाद ही बीजापुर नरेश व अंग्रेजों ने वीर शिवाजी को स्वतंत्र रूप से शासक के रूप में मान्यता दी। इसप्रकार वीर शिवा जी ने कृष्ण देव राय के पश्चात “हिंदवी साम्राज्य” की स्थापना 5 जून 1674 को किया, जिसे हम भारतीय ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को “हिंदू साम्राज्योत्सव” के रूप में बड़े भाव विह्वल होकर मनाते हैं।

वहीं शिवाजी के आग्रह पर काशी के पंडित गागाभट्ट ने “शिवार्कोंदय” नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें कुमारिल भट्ट के श्लोकबद्ध, श्लोकवार्तिक रूप में ही विषय प्रस्तुति की गई है। “शिवदिग्विजय” नामक मराठी साहित्य में पं. गागाभट्ट को महासमर्थ ब्राह्मण, तेजराशि, तपोराशि, अपरसूर्य, साक्षात वेदनारायण तथा महाविद्वान कहा गया है। वीर शिवाजी की मृत्यु मात्र 50 वर्ष की आयु में 1680 में हो गई तत्पश्चात इनके गुरु समर्थ रामदास काशी आकर भैरवनाथ के पंचगंगा घाट स्थित मंगलागौरी पंचायतन मंदिर के पीछे श्रीराम जानकी मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कराया। 

वहीं दूसरी तरफ़ साथ ही गौरी गौरीतीश्वर, शिवलिंग, मार्तंडभैरव, आदिकेशव, हनुमान आदि की विग्रह मूर्तियां भी प्रतिस्थापित करवाई। इन देव ग्रहों के भूतल में स्थापित समर्थ गुरु रामदास की प्रतिमा काशी वासियों के मानस में आज भी स्थापित है। इस प्रकार देखे तो भगवान राम व कृष्ण के पश्चात हिंदू साम्राज्य के प्रतिबिंब छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक काशी के पंडित गागा भट्ट ने करा कर हिंदुओं को मान वृद्धि प्रदान की व सदैव-सदैव के लिए शिवाजी के मानस में काशी व काशी के गागाभट्ट बने रहे। 

वहीं साथ ही काशी के पंडित गागाभट्ट ने वीर शिवाजी के रूप में भारत को एक नई पहचान प्रदान की। लेखक : डा. विनोद कुमार जायसवाल प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, बीएचयू के सहायक आचार्य हैं।