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यूपी: बनारस संगीत घराने के अदब- कायदे की मुरीद थीं लता मंगेशकर।
वाराणसी। बावजूद इसके कि स्वर कोकिला लता मंगेशकर को काशी आने का अवसर एक बार ही मिल पाया पर स्वर साम्राज्ञी लता जी बनारस संगीत घराने के अदब-कायदे (गुरुकुल पद्धति) की बेहद प्रशंसक थीं। उनका मानना था कि संगीत के प्रशिक्षण को किसी विद्यालयी संगीत कक्षा की संक्षिप्त समयावधि में बांधा नहीं जा सकता।
वहीं गुरु घराने की प्रशस्त अंगनाई में कभी गूंजती कोयल की कूक छत पर बिखरी चंदा की चांदनी या फिर मुंडेर पर फुदकती चकोर की हूक आपकी स्वर साधना का उपादान बन सकती है। दरअसल, उनकी इस सोच का एक आधार यह भी था कि वे स्वयं भी संगीत साधना की इसी धारा से जुड़ कर स्वर सागर की उत्ताल लहरों पर अपना सशक्त हस्ताक्षर अंकित कर पाई थीं।
वहीं नगर के वयोवृद्ध कला अनुरागियों के अनुसार 1951 में वाराणसी संगीत परिषद के आमंत्रण पर लता जी का काशी आना हुआ था। यह उनकी एक मात्र काशी यात्री थी। यह वह दौर था जब कोरस गायिकाओं की कतार से बाहर निकल कर लता जी अपनी प्रतिभा के बूते सिने जगत मेें एक पार्श्व गायिका के रूप में अपनी हनकदार पहचान कायम कर चुकी थीं।
बता दें कि संगीत से जुड़े वरिष्ठ काशिकेय पं. कामेश्वरनाथ मिश्र की संगीत तीर्थ काशी के अपने इस संक्षिप्त प्रवास में काशीपुराधिपति बाबा विश्वनाथ की चरण वंदना के उपरांत लता जी ने यहां के यशस्वी गुणीजनों की देहरी पर भी हाजिरी लगाई। वे कोकिल कंठा सिद्धेश्वरी देवी को अपना मानस गुरु मानती थीं।
वहीं जब वे काशी में उनके यहां रूकीं तो उनकी चरण रज लेने के साथ ही उनके अनुरोध पर सिद्धेश्वरी देवी के गुरुदेव पंडित बड़े रामदास महाराज का आशीर्वाद लेने उनके कबीरचौरा आवास पर पहुंचीं और उनके आंगन की धूलि सिर माथे लगाई। उन्हें उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की शहनाई के मिठास की लिज्जत बेहद पसंद थी। बनारस से कोई भी मिलने जाता तो उससे उस्ताद की सेहत के बारे में जरूर पूछतीं।