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यूपी : प्रदेश में मतदाताओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए मिले आनलाइन मतदान की सुविधा।
लखनऊ। संविधान सभा में जब मतदान के अधिकार और चुनावों की चर्चा हो रही थी तो पूर्वी पंजाब से चुने गए सदस्य ठाकुर दास भार्गव ने एक सुझाव रखा था, जिसे संविधान सभा ने खारिज कर दिया था। उनका सुझाव था कि समान और वयस्क मतदान के अधिकार में एक शर्त जोड़ दी जानी चाहिए। वह शर्त थी साक्षरता की।
वहीं ठाकुर दास भार्गव का सुझाव बेहतर होते हुए भी इसलिए गिर गया, क्योंकि तब भारत की साक्षरता दर महज 12 प्रतिशत थी। मतदान के अधिकार पर चर्चा करते हुए संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों को उम्मीद थी कि भविष्य में भारतीय लोकतंत्र संविधान प्रदत्त समानता आधारित समाज को बनाने की ओर आगे बढ़ता जाएगा, पर क्या यह उम्मीद पूरी हो पाई है?
वहीं चुनाव-दर-चुनाव भारत में जाति, धर्म, क्षेत्र की बुनियाद लगातार मजबूत होती जा रही है। जाति, धर्म और क्षेत्र की संकुचित मानसिकता को बढ़ावा देने के लिए अक्सर राजनीतिक दल सवालों के घेरे में रहते हैं, पर इस सोच में ही बुनियादी खोट है। चाहे जिस भी पक्ष की राजनीति हो, वह महज दिखावे के लिए ही समाज सेवा रह गई है। आज की राजनीति की निगाह हर पल सत्ता पर लगी रहती है।
वहीं अब तो राजनीति ने समाज सेवा के लिए सत्ता को ही साधन मान लिया है। हालांकि व्यवस्था भी वैसी ही हो गई है। इसलिए धर्म, जाति और क्षेत्र के संकुचित वाद को बढ़ावा देना और उसके जरिये सत्ता की आंख पर निशाना साधना राजनीतिक दलों की दिनचर्या हो गई है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश का बौद्धिक समाज और मीडिया भी चुनाव-दर-चुनाव इसी सोच के आधार पर बहसें करता है और राजनीतिक कदमों का समर्थन या विरोध करता है।
वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र की बुनियाद नागरिक हैं। जिनमें से एक बड़े हिस्से के पास मतदान का अधिकार होता है, लेकिन दुर्भाग्यवश चुनाव को लेकर होने वाले विमर्शो में मतदाता को सिर्फ एक उपादान यानी जरियाभर मान लिया गया है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह जाति, धर्म और क्षेत्र को बढ़ावा देने वाली राजनीति के साथ अपनी जाति, धर्म और क्षेत्रवादी सोच के साथ जुड़े और वोट दे।
वहीं बेशक सर्वोच्च न्यायालय ने जाति और धर्म की खुलेआम चर्चा पर रोक लगा रखी है, लेकिन इन पर भी चर्चा के लिए राजनीतिक दल प्रकारांतर से राह निकाल ही लेते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जाति, धर्म और क्षेत्रवाद की घुट्टी पिए तंत्र से बनने वाली सरकार और उसकी बुनियाद समाज से ऐसे समानता आधारित समाज की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? स्पष्ट है कि चुने गए प्रतिनिधि या दल के सामने अपने मुख्य मतदाता आधार की आकांक्षाओं को पूरा करने का दबाव हमेशा रहेगा।