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आईपीसीसी के छठे आकलन की दूसरी रिपोर्ट ने पर्यावरण संबंधी चिंताएं बढ़ायी , जानें कैसे बचेगा ये दुनिया

आईपीसीसी के छठे आकलन की दूसरी रिपोर्ट ने पर्यावरण संबंधी चिंताएं बढ़ायी , जानें कैसे बचेगा ये दुनिया


नई दिल्ली । इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के छठे आकलन की दूसरी रिपोर्ट ने पर्यावरण संबंधी उन चिंताओं को और ज्यादा स्पष्टता और सटीकता से चिह्नित किया है, जो पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ती जा रही हैं। 

आज बुधवार को जारी हुए इस दूसरे हिस्से में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के साथ ही अनुकूलन से जुड़े पहलुओं पर ध्यान दिया गया है। आईपीसीसी के इस छठे आकलन का पहला हिस्सा पिछले साल अगस्त में जारी हुआ था। इसका तीसरा और अंतिम हिस्सा अगले महीने यानी अप्रैल में जारी होना है। पहले हिस्से में जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधारों की पड़ताल की गई थी तो तीसरे हिस्से में उत्सर्जन में कमी की संभावनाएं टटोली जाएंगी।

 यह भी ध्यान देने वाली बात है कि क्लाइमेट चेंज से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर समग्रता से विचार करके विस्तृत रिपोर्ट जारी करने का यह सिलसिला 1990 से शुरू हुआ। 1995, 2001, 2007 और 2015 में क्रमश: दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें आकलन के बाद यह छठा आकलन सामने आया है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि हर रिपोर्ट बार-बार उन्हीं खतरों का जिक्र करती रही है, जिनका कोई हल सामने आता नहीं दिख रहा। उलटे, हर रिपोर्ट के साथ वे खतरे और ज्यादा बढ़े हुए नजर आते हैं।

यह बात एक हद तक सही भी है और किसी न किसी रूप में इस ख्याल के लिए गुंजाइश बनाती है कि कहीं यह पूरी कवायद निरर्थक तो नहीं होती जा रही। मगर नहीं। क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वॉर्मिंग की विशाल चुनौतियों के सामने हमारे प्रयास भले ही नाकाफी साबित हुए हों, इसमें दो राय नहीं हो सकती कि अगर दुनिया इन चुनौतियों को लेकर एक तरह की सर्वसम्मति तक पहुंच सकी है और पेरिस एग्रीमेंट जैसा समझौता संभव हुआ है तो उसके पीछे आईपीसीसी के इन आकलनों की निर्णायक भूमिका रही है। और यही आकलन अब हमें बता रहे हैं कि पूर्व औद्योगिक युग के मुकाबले तापमान में इजाफे को 2 फीसदी तक सीमित करने का लक्ष्य अब निरर्थक सा हो चुका है। इसे 1.5 तक सीमित रखने का लक्ष्य ही रखना होगा। 

यह भी कि इस कठिन लक्ष्य को साधने की कोशिश काफी नहीं। इसे साध लें, तब भी क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वॉर्मिंग के दुष्प्रभाव थोड़ा कम भले हो जाएं, पूरी तरह समाप्त नहीं होंगे। इसलिए हमें अनुकूलन से जुड़े पहलुओं पर विशेष ध्यान देते हुए कृषि और उद्योग संबंधी नीतियों में उन बदलावों पर काम करना चाहिए, जो इन्हें उन दुष्प्रभावों से उपजी स्थितियों के अनुरूप ढाल सकें। अगर अब भी हमने ढीला-ढाला रवैया जारी रखा तो समुद्र के जलस्तर में इजाफा, भीषण गर्मी और लू के थपेड़े तथा बेमौसम बारिश जैसी आपदाएं हमारा जीना मुश्किल कर देंगी।