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यूपी : दशाश्‍वमेध घाट पर आखिरी होली गीत के साथ होलिका दहन और चईता गायन हुआ शुरू।

यूपी : दशाश्‍वमेध घाट पर आखिरी होली गीत के साथ होलिका दहन और चईता गायन हुआ शुरू।

                           Vinit Jaishwal City Reporter

वाराणसी। काशी की होली की पंरपरा की बात ही अलग है। समय के साथ काफी कुछ बदला एक विशेष बात यह होती थी जिसे मैंने अपनी आंखों से देखा है, कई मोहल्लों से होलियां ढोल-मजीरा के साथ गाते-नाचते मस्ती में गाते आतीं और दशाश्‍वमेध घाट के नीचे शीतला मंदिर के पास आखिरी होली का गीत एक साथ गाते- 'सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेलें होली... और इसी गीत से होली का गायन समाप्त होता। साथ ही तुरंत चईता-चईती, घाटो का गायन शुरू हो जाता। इसके बाद लोग अपने-अपने घर जाते।

वहीं कुछ चीजें आज भी कुरेदती हैं जिनका लोप हो गया या स्वरूप बदल गया। काशी में गवनहारिनों की होली गान की लीला का आनंद ही अलग था। ऋतु गीतों, खास कर होली, चैती और कजरी में उन्हें सुनने के लिए लोग लालायित रहते थे। कसेरा समाज की खमास गायकी तो सपने के सम्पदा हो गई है। कुछ अडिय़ां विशेष आकर्षण होती थी। एक वक्त था कि डेड़सी के पुल की अड़ी सबसे अधिक आकर्षक व प्रभावी थी। शाम पांच बजे से ही वहां जुटान शुरू होती। 

वहीं साहित्यकार, कलाकार, बुद्धिजीवी और रईसों की अड़ी के रूप में इसकी पहचान थी। कितने की भांग बिकी, कितने की ठंडई गई, कितने लोगों की भागीदारी रही, यह कोई नहीं गिनता था। इन सबका कौन भुगतान कर रहा है यह भी कोई नहीं जानता था। सबके सब मस्ती के रंग में सराबोर। रंग-बिरंगे अबीर की उड़ान का पता तो सुबह चलता जब सड़क पर झाड़ू लगाने सफाईकर्मी आते। दूर तलक अबीर की मोटी परत ही मिलती।

वहीं ब्रज की लट्ठमार होली तो आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। आज भी इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैैं।यहां मैं सिर्फ पूर्वांचल के प्रमुख केंद्र काशी की चर्चा करूंगा। काशी यानी बनारस अपने आप में बेमिसाल शहर है। देवाधिदेव महादेव की नगरी काशी मुक्तिधाम है। यह एक पवित्र तीर्थ है। सुरसरि मां गंगा के तट पर बसी काशी का लोक जीवन विविधताओं से भरा है जो अनूठेपन के लिए विख्यात है। 

वहीं यहां का ठेठ बनारसी ठाठ अपनी अलग पहचान रखता है। कुछ खास अवसर हैं जहां भारी भीड़ के बीच भी बनारसी पहचान लिए जाते हैं। चाहे वह रामनगर की रामलीला हो चाहे वेद व्यास का मेला। लोटा भंटा मेला हो या बहरी अलंग की छटा। हर कहीं टूटी भीड़ अलग ही बनारसी मन मिजाज के लोग अलग ही दिखते हैं। लोक पर्व होली में भी इस शहर का मिजाज अलग ही दिखता है।

वहीं होलिका दहन के बाद रंगोत्सव के दिन सुबह से ही फगुआ गाते जगह-जगह से निकलती टोलियां। धुआंधार रंगों की पिचकारी की हनक, फगुआ चहका, बेलवइया और जोगीड़ा का गायन होता है। दोपहर तक खूब रंगबाजी होती है फिर नहा -धोकर, खा-पी कर थोड़ा विश्राम कर शाम जिस तरह जीवंत होती है, वह तो सभी का मन मोह लेती है। इस दूसरे के यहां आना-जाना, मिल जुल कर अबीर गुलाल लगा कर गले मिलना और स्नेह-सत्कार करना इस शहर के भाव को दर्शाता है।

वहीं यह पकवानों का पर्व भी कहा जाता है। गुझिया, दही बड़ा, मालपुआ समेत विविध प्रकार के व्यंजन घर पर तैयार होते हैं। किसिम-किसिम के खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं। हर वर्ग इस पर्व को आनंद से मनाता है। ठंडई और भांग की उमंग में पूरा माहौल बड़ा ही मधुर और मोहक बन जाता है। इसके लिए न तो कोई प्रयास किया जाता है और न ही किसी तरह का पूर्वाभ्यास होता है। यह सब कुछ अपने आप होता है। 

वहीं पीढिय़ों से होता आ रहा है, आज भी है और ऐसा विश्वास है कि इस शहर में आगे भी होता रहेगा। ऐसा क्यों है, यह सवाल यदि कोई पूछता है तो उसका उत्तर मात्र यही है कि यह प्रकृति की देन है। शीत का प्रकोप कम हो चुका है। प्रकृति अपना कलेवर बदलने लगती है। एक ओर पतझड़ और फिर नई-नई फुनगियों का निकलना, खेत में खड़ी गदराई फसल का पकना, अच्छी उपज की आस और साल भर के आहार की निश्चिंतता, आम की मंजरियों में महकती अमराई, कोयल की कुहुक ऋतुराज की दस्तक अनायास ही सबको उल्लसित कर देती है।

वहीं होली प्रीति पर्व है, उत्साह-उल्लास का पर्व है। मेल-मिलाप का पर्व है। यह कहना था बड़े-बुजुर्गों का, विद्वानों और साहित्यकारों का। आज भी होली पर्व वही है। सिर्फ लोगों की सोच बदल गई है। प्रेम की परिभाषा लोग यहां की लोक जीवन शैली सी सीखते हैं। इसका जीवंत प्रमाण काशी का पक्का महाल है। बनारसी पन देखना है, बनारस का मिजाज जानना है, बनारस की रईसी देखनी है तो पक्के महाल में घूम लीजिए। आपको सबके नजारे मिल जाएं।

वहीं होली का पर्व प्रीति का पवित्र परंपरा का संदेश देता है। बनारस की गलियों से लेकर सड़कों तक तमाम अडिय़ों से लेकर बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों, साहित्य-संगीत और कला के केंद्रों तक काशी में होली का पर्व आनंदोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यह मेल-मिलाप, भाईचारे का संदेश देता लोगों को जोडऩे वाला पर्व है। नई पीढ़ी, आने वाली पीढ़ी को शुभ संस्कारों से भरते हुए अपनी सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखने का मंगलमय संदेश देने वाला पर्व है। इसकी लोकरंजकता ही इसका प्राण तत्व है। यह बना रहे तो बनारस भी बना रहे।