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यूपी : काशी और गंगा को टूटकर चाहने वालों में नाम शुमार था नजीर बनारसी का।
वाराणसी। काशी और गंगा को टूटकर चाहने वालों में शुमार हुआ करता था बनारसी मिजाज के अक्खड़-फक्कड़ शायर नजीर बनारसी का। यही वह वजह थी कि खुद का तआर्रुफ "परिचय" कराने में भी अपने नाम के साथ बनारस को जोड़ना वो ताउम्र नहीं भूले। खुद उनके भी बयान के मुताबिक "नाम है मेरा नजीर और नगरी बेनजीर" के जरिए जब वे किसी को अपना नाम बताते थे तो मारे घमंड के फूले नहीं समाते थे।
वहीं नजीर साहेब की पुण्यतिथि "23 मार्च" की पूर्व संध्या पर जागरण से हुई एक मुख्तसर मुलाकात में यह जिक्र करते हुए उनके बेटे रेयाज अहमद खुद बेहद जज्बाती हो जाते हैं। कहते हैं अब्बा हुजूर हमेशा कहते थे कि मादरे वतन कि जमीन से हिन्दु भाइयों से गहरा नाता मुस्लमानों का है।
वहीं दुनिया से परदा करने के बाद हिन्दू तो चिता में जलकर दुनिया से फना हो जाते हैं पर हमें तो मरने के बाद भी दो गज जमीन की गोद में चाहिए। आजादी के बाद मुल्क के बंटवारे के दौर में दिली व जेहनी तौर पर कितना बिखर गए थे नजीर साहेब रेयाज भाई उनसे सुनी यह दास्तां आज हमें सुनाते हैं।
बता दें कि वहीं बात है सन 1947-48 की देश के विभाजन का ताजा-ताजा घाव अभी रीस ही रहा था। इसके असर से सामाजिक ताने-बाने से लेकर साहित्य भी बरी नहीं रहा। ज्यादातर कलमकार उन दिनों अलगाव की ही पैरोकारी कर रहे थे। उनकी रचनाओं से प्रतिध्वनित था कि बंटवारे के बाद अब हिन्दुस्तान में कोई जगह नहीं रही। इस सोच से आहत नजीर ने जब कलम उठायी तो मानो उनकी शायरी के हर लफ्ज में एक (जिद) सी ऊभर आयी। नजीर ने लिखा
वहीं वफादारी की कसमें खाती नजीर की कलम यहीं नहीं रूकी उसने अपना मकसद भी पूरी बेबाकी से बयां किया। स्याही की जगह आंखों वाला पानी की तासीर इस्तेमाल कर रही नजीर की कलम बोली
हमें डूबना और ऊभरना यहीं है, है गंगा यहीं पार उतरना यहीं है। जिये हम यहीं, हमको मरना यहीं है। हम आबादो-बर्बाद बेबाक होंगे। इसी खाक के हैं यहीं खाक होंगे।। मजहबी चोला ओढ़कर मुस्लिमों को पाकिस्तान जाने की वकालत करने वाले लोगों को दो टूक जवाब देते हुए नजीर की कलम ने ललकार लगायी। अजल को गले से लगाना गंवारा, गंवारा लहू में नहाना गंवारा वतन से नहीं हमको जाना गंवारा। वो जाएं कहीं जो यहां का नहीं है हमारा तो सबकुछ यहीं था यहीं है।।
वहीं बताते हैं रेयाज भाई अब्बू ने यह नज्म वर्ष 1947 में लिखी थी किन्तु उन्माद के उस दौर में कहीं मंच नहीं मिल पाने की मजबूरी में यह साल भर डायरी के पन्नों में ही घुटती और सिसकती रही। वर्ष 1948 में इत्तेफाक से अब्बा हुजूर के इटावा निवासी एक दोस्त वहां पर आयोजित एक मुशायरे का न्योता लेकर आए। दंगे-फसाद का सिलसिला अभी थमा नहीं था।
वहीं लिहाजा घर वाले उन्हें जाने देने के हक में नहीं थे। नजीर साहेब हठ करके उस मुशायरे में शामिल हुए और पहली बार यह नज्म पढ़ी। हुआ यह कि बात दूर तलक गयी एक पैगाम की शक्ल में इस नज्म की सतरें पूरे मुल्क के लोगों तक गयी। लोगों ने एक-दूसरे के जज्बातों को समझना शुरू किया और फिर एक बार मुल्क में मिल्लत और यकजहती का माहौल बनाने में नजीर साहेब की यह रचना एक मिसाल बनी।