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 वाराणसी : जलती चिताओं के बीच मेला राग-विराग का कल 8 अप्रैल को होगा आयोजन

वाराणसी : जलती चिताओं के बीच मेला राग-विराग का कल 8 अप्रैल को होगा आयोजन

                        Vinit Jaishwal City Reporter

वाराणसी। एक तरफ धधकती चिताओं के पास से उठ रहा करुण विलाप दूसरी तरफ 'आइल बलम क संदेसवा हो रामा चइता मासे का अलसाया सा आलाप। एक ओर मन में विराग का भाव जगाती ज्वालाओं में भस्मीभूत हो रही मनुष्य की नश्वर काया तो दूसरी ओर जीने की ललक को चंग (पतंग) पर चढ़ाती महाठगिनी माया।

वहीं चीत्कारों व समानांतर खनकती घुंघरुओं की झंकारों की शक्ल में एक ही तुला पर तुल रहे राग-विराग के भावों की युगलबंदी का यह दृश्य शुक्रवार को काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका की सीढिय़ों पर फिर उपस्थित होगा। अवसर होगा- वासंतिक नवरात्र की सप्तमी तिथि तद्नुसार आठ अप्रैल को काशी के श्मशान के अधिष्ठाता महाश्मशान नाथ के त्रिदिवसीय शृंगार महोत्सव का।

वहीं इसमें काशी के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से आई वार वनिताएं (नगर वधुएं) अपनी रसभीनी प्रस्तुतियों के साथ महाश्मशान नाथ के दरबार में उपस्थिति दर्ज कराएंगी। सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार जीवन और मृत्यु के बीच की बारीक लकीर पर आधारित अंतिम सत्य की वास्तविक परिभाषा से परिचित कराएंगी। इन गणिकाओं के बीच मान्यता है कि बाबा श्मशान नाथ के दरबार में टांकी गई इस हाजिरी से उनके इस अधम जीवन का अभिशाप कट जाएगा, इहलोक रास न आया न सही, परलोक संवर जाएगा।

वहीं कहा जाता है कि 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में काशी आए राजा मानसिंह ने मणिकर्णिका तीर्थ पर अवस्थित जीर्ण-शीर्ण श्मशान नाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया, तो रीति के अनुसार धार्मिक अनुष्ठानों के बाद मंगल उत्सव के लिए नगर के संगीतज्ञों को भी आमंत्रित किया। खेदजनक रहा कि कतिपय पूर्वाग्रही हिचक के चलते स्थापित कलाकारों ने मंगल उत्सव में भाग लेने से मना कर दिया। राजा मानसिंह व्यथित हुए और मंदिर में बगैर उत्सव आयोजित किए ही दिल्ली लौटने की तैयारियों में जुट गए।

वहीं काशी के पुरनिये बताते हैैं कि कानोंकान यह खबर जब नगर की वार वनिताओं तक पहुंची तो उन्होंने अपने आराध्य नटराज स्वरूप महाश्मशानेश्वर नाथ की महफिल सजाने का एकमत निर्णय लिया और सहज संकोच के साथ राजा साहब को संदेश पठाया कि वे मंगल उत्सव सजाने को सिर्फ तैयार ही नहीं, आतुर हैैं। संदेश पाकर राजा मानसिंह प्रसन्न हुए। उन्होंने ससम्मान रथ आदि भेजकर इन नगर वधुओं को उत्सव में बुलवाया। तभी से यह परंपरा चल निकली और आगे जाकर काशी की एक रीति के रूप में स्थापित हो गई।

वहीं दूसरी तरफ़ शीतला घाट स्थित शीतला मंदिर के महंत आचार्य शिव प्रसाद पांडेय बताते हैैं कि वनिताओं के इस निर्णय के पीछे मात्र क्षणिक आवेग नहीं, एक पूरा जीवन दर्शन जुड़ा हुआ था। उनका यह सोचना था कि सबको तारक मंत्र देकर तारने वाले महाश्मशानवासी भूतभावन शंकर उनकी इस सेवा से प्रसन्न होकर क्या उन्हें मोक्ष का अधिकारी नहीं बनाएंगे।

वहीं अभिशप्त जीवन से मुक्ति को लेकर उनका यह समवेत विचार ही इस उत्सव का मूल मंतव्य बन गया। आगे चलकर काशी के अलावा इस तिथि विशेष को देश के अन्य हिस्सों से भी गणिकाएं इस आयोजन में आने लगीं, अपनी भागीदारी दर्ज कराने लगीं।