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भारत को यूएन परिषद् में वीटो पावर के साथ शामिल किया जाए , नहीं तो वीटो पावर ही कर दिया जाए समाप्त

भारत को यूएन परिषद् में वीटो पावर के साथ शामिल किया जाए , नहीं तो वीटो पावर ही कर दिया जाए समाप्त



नई दिल्ली । भारत के स्थायी बहसों में एक यह रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने चीन के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सीट का कथित बलिदान दे दिया. 50 के दशक में सोवियत संघ और अमेरिका दोनों ने ही भारत को सुरक्षा परिषद् में सीट देने की पेशकश की थी.


भारत ने इसे ठुकरा दिया था. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के आलोचकों ने इस फैसले को महज ‘भोले आदर्शवाद’ की संज्ञा दी और कहा कि इसकी कीमत भारत को चुकानी पड़ी है.

नेहरू के फैसले के बचाव में तर्क दिया जाता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सीट न लेने के पीछे कई ऐसे कारण थे जिन पर सहज ही विश्वास किया जाना चाहिए. सबसे पहले 1950 में अमेरिका द्वारा (एलन फोस्टर डलेस के माध्यम से) और बाद में पचास के दशक के मध्य में रूस द्वारा (निकोलाई बुल्गानिन के माध्यम से) सुरक्षा परिषद् का सीट पेश किया गया था. सबसे पहले नेहरू को संदेह था कि चीन को सीट न देकर भारत को सीट देने के पीछे अमेरिका और रूस दोनों के अपने-अपने कारण हैं. जाहिर है कि चीन को अमेरिका एक साम्यवादी खतरे के रूप में देखता था और 50 के दशक के मध्य तक रूस भी चीन को विद्रोही देश और साम्यवादी दुनिया में अपने वर्चस्व के लिए खतरे के रूप में देखने लगा था. नेहरू का मानना था कि अमेरिका और रूस दोनों ही चीन के खिलाफ भारत को खड़ा करना चाहते थे और उस समय भारत अपने उत्तरी पड़ोसी के साथ संघर्ष करने की स्थिति में नहीं था.

यह एक ऐसा दौर था जब शीत युद्ध शुरू हो गया था. पश्चिम और सोवियत संघ ने सैन्य गुटों का गठन किया और इधर भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन शुरू करने का बीड़ा उठाया. मतलब भारत दोनों ही ब्लॉक से समान दूरी बनाए रखेगा और नई आज़ादी पाए देशों को किसी भी ब्लॉक के प्रकोप से बचाएगा भी. नेहरू ने संभवतः इस प्रस्ताव को बारीकी से देखा था और पाया था कि यह महज एक संदेश था कोई ठोस प्रस्ताव नहीं. दरअसल दोनों ही ब्लॉक पानी को परख रहा था यह जानने के लिए कि भारत का झुकाव किस तरफ है.

बहुत से विद्वानों, खास तौर पर एजी नूरानी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने के कारणों के बारे में लिखा है. उन कारणों को पढ़ने के बाद ये पता चलता है कि यह फैसला अतिभावुक अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के तहत नहीं लिया गया था बल्कि ये उस समय के हालात के मद्देनज़र काफी सोच-समझ कर लिया गया फैसला था. इस विषय पर विल्सन सेंटर का एक प्रोजेक्ट है- नॉट एट द कॉस्ट ऑफ चाइना: इंडिया एंड द यूनाइटेड सिक्योरिटी काउंसिल, 1950 . इस प्रोजेक्ट में एंटोन हार्डर ने इस विवाद पर कुछ नया प्रकाश डाला है.


“नेहरू के अमेरिकी प्रस्ताव को अस्वीकार करना दरअसल उनके दृढ़ विश्वास की निरंतरता को रेखांकित करता है. नेहरू का मानना था कि अंतर्राष्ट्रीय तनाव को कम करने के लिए पीआरसी (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) के वैध हितों को स्वीकार किया जाना चाहिए. सुरक्षा परिषद में अपनी सीट पर चीन को अधिकार देकर पीआरसी को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में शामिल करना वास्तव में नेहरू की विदेश नीति का एक केंद्रीय स्तंभ था. इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के बारे में नेहरू के संशय और इस तरह संयुक्त राष्ट्र की गतिशीलता को बाधित करने से पता चलता है कि तमाम दोषों के बावजूद इस अंतरराष्ट्रीय संगठन के प्रति उनकी श्रद्धा काफी थी.

साल 2002 में फ्रंटलाइन द्वारा प्रकाशित नूरानी का लेख “द नेहरूवियन अप्रोच” को एंटोन हार्डर ने भी उद्धृत किया था. नूरानी के लेख में पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा लिखे गए एक नोट को फिर से प्रस्तुत किया गया है जब वे 1955 में तत्कालीन सोवियत संघ के दौरे पर थे:

“अनौपचारिक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका ने ये सुझाव दिया है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में लिया जाना चाहिए लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं और भारत को सुरक्षा परिषद में उसकी जगह लेनी चाहिए. हम निश्चित रूप से इसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इसका अर्थ है चीन के साथ झगड़ा करना और चीन जैसे महान देश के लिए सुरक्षा परिषद में न होना बहुत अनुचित होगा. इसलिए हमने यह सुझाव देने वालों को स्पष्ट कर दिया है कि हम इस सुझाव से सहमत नहीं हो सकते. हमने थोड़ा और आगे बढ़कर कहा है कि भारत एक महान देश है और उसे सुरक्षा परिषद् में होना चाहिए लेकिन भारत इस समय सुरक्षा परिषद में प्रवेश करने के लिए उत्सुक नहीं है. पहला कदम यह है कि चीन अपनी सही जगह ले और फिर भारत के सवाल पर अलग से विचार किया जाए.


एक पुराने विवाद को फिर से उठाने का कारण वर्तमान में कुछ प्रासंगिकता की तलाश करना है. चीन को शामिल कराने में नेहरू सही थे या गलत यह अब विशुद्ध रूप से अकादमिक अध्ययन ही है. उनका तर्क भले ही उस समय प्रासंगिक रहा हो, लेकिन पीछे मुड़कर जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि भारत को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है. भारत अब 50 और 60 के दशक के तीसरी दुनिया का देश नहीं रहा. यह एक विश्व शक्ति है और सभी देश इसकी तारीफ करते हैं. भारत वैश्विक स्तर पर आत्मविश्वास के साथ खुद को संभालने में सक्षम है. अब भारत छोटे-छोटे देशों के साथ सुरक्षा परिषद् में दो साल के कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ने की रणनीति का त्याग करे. दरअसल अब समय आ गया है जब भारत सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट पर कब्जा करे.

भारत संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन की मांग करता रहा है. भारत ने कहा है कि इसके वर्तमान अवतार की उपयोगिता दशकों पहले समाप्त हो चुकी है. भारत ने जोर देकर कहा है कि शीत युद्ध के बाद नई विश्व शक्तियों का उदय हुआ है जिससे शक्ति का अंतर्राष्ट्रीय संतुलन बदल गया है. अक्सर ही पी-5 देशों ने भारत को सुरक्षा परिषद में शामिल करने के बारे में साफ तौर से बात नहीं की है. उन्होंने कहा है कि भारत को बिना वीटो पावर के सुरक्षा परिषद् में शामिल होना चाहिए. ये प्रस्ताव निस्संदेह बेमानी है. सुरक्षा परिषद को आज के दौर में प्रासंगिक और प्रभावी होने के लिए आज की वास्तविकताओं से रू-ब-रू होना चाहिए, न कि सात दशक पहले की वास्तविकताओं से.

बहरहाल, यह तथ्य कि सुरक्षा परिषद में सदस्यों की दो श्रेणियां हो सकती हैं- एक वे जिनके पास वीटो है और दूसरे वे जिनके पास नहीं है- स्वयं संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन है. संयुक्त राष्ट्र का चार्टर कहता है कि “संयुक्त राष्ट्र सभी के मौलिक मानवाधिकारों में, पुरुषों और महिलाओं एवं बड़े और छोटे राष्ट्रों के समान अधिकारों में विश्वास की पुष्टि करता है…


वीटो पावर वाली सुरक्षा परिषद में भारत को बिना वीटो पावर के नहीं रखा जा सकता है. सुरक्षा परिषद भारत, जापान, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को स्थायी सदस्य क्लब में दाखिला देने के लिए दरवाजे खोलने को तैयार तो है लेकिन इनको वीटो पावर नहीं देना चाहता. ऐसी परिस्थिति में पी -5 देशों का वीटो पावर भी समाप्त कर देना चाहिए, तभी परिषद् को सही मायने में एक रिप्रजेंटेटिव बॉडी माना जा सकता है.

यदि संयुक्त राष्ट्र में सर्वोच्च परिषद की एक सीट के लिए भारत को उसका हक जल्द नहीं मिलता है तो भारत को अपना विरोध दर्ज करना चाहिए भले ही वो प्रतीकात्मक हो. भारत को एक संक्षिप्त अवधि के लिए संयुक्त राष्ट्र की अपनी सदस्यता के स्वैच्छिक निलंबन पर विचार करना चाहिए. यह संगठन को सुधार की आवश्यकता पर विचार करने के लिए प्रेरित कर सकता है. अपनी बात को सही साबित करने के लिए भारत को लिचेंस्टीन प्रस्ताव के पक्ष में भी वोट देना चाहिए. भले ही ये प्रस्ताव राजनीतिक मकसद के साथ पश्चिमी देशों की चाल हो और रूस के खिलाफ जाता हो. यह रूस को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, लेकिन चीन को नाराज जरूर करेगा. और बीजिंग को कभी-कभार गुस्सा दिलाना सार्थक होता है.