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यूपी : वाराणसी में अंग्रेजों ने देखी बनारसी अस्सी की धार, वहीं घोड़े पर हौदा और हाथी पर जीन भागा रे भागा वारेन हेस्टिंग्स
वाराणसी। शिवाला घाट की पथरीली सीढ़ियों पर मौजूद चेत सिंह के किले की शौर्य गाथा बनारस की शान को और बढ़ा देती है। कुमार अजय बता रहे हैं कि किस प्रकार देसी अस्त्र-शस्त्र से लैस बनारसवासियों ने अंग्रेजों के इरादों को मिट्टी में मिला दिया था। वैसे तो काशी में गंगधार के कंठ में चंद्रहार से सुशोभित गंगा के सभी घाट स्थापत्य के अनूठे वैभव के यश प्रतीक हैं, किंतु काशी केदार खंड क्षेत्र के शिवाला घाट की पथरीली सीढ़ियों के शीर्ष पर आज भी सिर उठाए खड़े चेत सिंह किले की आन निराली है। इस प्रस्तर दुर्ग की हर शिला भोजपुर क्षेत्र के प्रथम विद्रोह (वर्ष 1781) की अमर गाथा की गवाह है। पहली बार अंग्रेजों को बनारसी तलवार (असि) की धार से परिचित कराने वाले योद्धाओं की शौर्य कथा को स्वर देने वाली है।
वहीं चार जुलाई, 1775 को नवाब आसफुद्दौला से हुई संधि के बाद बनारस के राजा बनाए गए जमींदार चेत सिंह। बदले में बनारस राज्य की ओर से 23,40,249 रुपए की सालाना रकम मासिक किस्तबंदी के रूप में कंपनी के खजाने में जमा करने का करार हुआ। बात बिगड़ी जुलाई 1778 में, जब फ्रांस व इंग्लैंड के बीच युद्ध छिड़ा। कंपनी ने इसी बहाने राजा पर बार-बार अतिरिक्त राशि की वसूली का दबाव बनाना शुरू किया।
वहीं एक-दो बार तो उन्होंने मांग पूरी की, पर बाद में रुपया देने से साफ इन्कार कर दिया। मामला सुलझाने के लिए गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने सात जुलाई, 1781 को कलकत्ते (अब कोलकाता) से जलमार्ग द्वारा बनारस के लिए प्रयाण किया। उसने कबीर चौरा स्थित माधवराव के बगीचे (अब स्वामीबाग) में डेरा डाला। जहां से उसने तत्कालीन रेजीडेंट मार्कहम को आदेश दिया कि 16 अगस्त, 1781 को शिवाला किला (राजा चेत सिंह का नगर आवास) पहुंचकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए।
वहीं दूसरी तरफ़ बात कानोंकान बनारस वालों तक पहुंच गई। फिर क्या था, 16 अगस्त की आधी रात से लाठी और तलवारों से लैस नागरिकों व राजकीय सैनिकों की भीड़ शिवाला किले की गलियों में धंस आई। योजना के मुताबिक, रेजिडेंट मार्कहम भोर में मेजर फोफम के नेतृत्व में सेना की टुकड़ियां लेकर शिवाला किला पहुंचा तो देसी अस्त्र-शस्त्र से लैस बनारसवासियों व राजा के र्कांरदों की हजारों की जुटान देखकर हक्का-बक्का रह गया।
वहीं गवर्नर का संदेश लेकर किले पहुंचे कंपनी के सूबेदार केतराम ने जैसे ही अभद्र भाषा में राजा को गवर्नर का पैगाम सुनाया तो बनारस की तलवार चमक उठी और लोगों ने केतराम का कटा हुआ सिर किले के पथरीले आंगन में भू-लुंठित पाया। बाबू मनियार सिंह, बाबू नन्हकू सिंह ने गिरफ्तारी की मंशा से राजा की ओर बढ़ रहे लेफ्टिनेंट स्टाकर और साइम्स के सिर को भी तलवार की धार पर लिया और देखते ही देखते दोनों खेत रहे।
वहीं उधर बाहर तो गजब का संग्राम था। बनारसियों व राजसैनिकों ने पलक झपकते कंपनी की सेना के 200 से भी अधिक सिपाही मार गिराए। इस बीच लोगों ने पगड़ियों को जोड़कर रस्सी बनाई और राजा चेत सिंह को किले के पीछे गंगा घाट की ओर उतार दिया। पहले से तैयार बैठे नाविकों ने पतवार संभाली और तीर की तरह छूटी नौका ने कुछ ही क्षणों में राजा को सुरक्षित गंगापार रामनगर दुर्ग तक पहुंचा दिया।
वहीं काशी के इस विप्लव की सूचना ने भारत से इंग्लैंड तक कंपनी के सिंहासन की चूलें हिला दीं। वारेन हेस्टिंग्स को कतिपय चाटुकारों की सहायता से 31 अगस्त की रात जनाना पार्टी में छिपकर चुनार भागना पड़ा। अगली सुबह पहले ही रात के इस पलायन की कहानी शहर के चट्टी-चौराहों तक पहुंच चुकी थी। बनारस एक बार फिर अपने अलमस्त अंदाज में था। टोले-मोहल्ले शाम ढलने तक काशी के पारंपरिक ‘हर हर महादेव’ के जयघोष से गूंजते रहे। नौजवानों, किशोरों व बच्चों की टोलियां उत्सव माहौल में ‘घोड़े पर हौदा और हाथी पर जीन, भागा रे भागा वारेन हेस्टीन’ के पिंगली बाण छोड़ते हुए पूरे शहर में घूम रहे थे।