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यूपी : औरंगजेब का मुगालता तोड़ने वाली ताराबाई साहेब बात की भी धनी और तलवार की भी हुआ धनी।

यूपी : औरंगजेब का मुगालता तोड़ने वाली ताराबाई साहेब बात की भी धनी और तलवार की भी हुआ धनी।


यूपी। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित साम्राज्य को जीतने का सपना देखने वाले औरंगजेब ने 27 साल दक्षिण (दक्खन) में गुजारे। उसमें से आखिरी सात साल छत्रपति शिवाजी महाराज की पुत्रवधू रणरागिनी महारानी ताराबाई भोंसले ने उसकी नाक में दम कर दिया। मुगल बादशाह का मुगालता तोड़ने वाली ताराबाई साहेब बात की भी धनी थीं और तलवार की भी, बता रहे हैं विश्वास पाटिल...

वहीं मराठा साम्राज्य को पूर्णतया पदाक्रांत करने का मुगालता औरंगजेब ने जिंदगी भर पाले रखा। छत्रपति शिवाजी महाराज का महानिर्वाण तीन अप्रैल 1680 को हुआ और वर्ष 1681 में औरंगजेब ने उनके साम्राज्य पर धावा बोल दिया। उस समय यहां राज कर रहे छत्रपति शिवाजी के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज ने औरंगजेब से लगातार आठ वर्ष घनघोर संग्राम किया। औरंगजेब ने संभाजी महाराज को घात लगाकर अचानक कैद कर लिया और पुणे जिले में भीमा नदी के किनारे बड़ी निर्दयता से उनकी हत्या कर दी। 

वहीं उसके बाद संभाजी के भाई एवं छत्रपति शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र छत्रपति राजाराम ने औरंगजेब के साथ वही संग्राम अगले 11 वर्ष तक जारी रखा। उन्हीं की अर्धांगिनी थीं ताराबाई भोंसले। वर्ष 1700 में छत्रपति राजाराम का निर्वाण हुआ। तब औरंगजेब बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि मराठाओं के तीन छत्रपति काल के गाल में समा चुके थे और अब उसके मळ्ताबिक सह्याद्रि और दक्खन जीतना महज कुछ दिनों की ही बात थी। किंतु छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरांगना पुत्रवधू महारानी ताराबाई ने औरंगजेब के सपने को चकनाचूर कर दिया।

वहीं महारानी ताराबाई महज 25 वर्ष की आयु में घोड़े पर सवार होकर रणभूमि में औरंगजेब की फौज से मुकाबला करती थीं। अपना सिंदूर गंवाने के बावजूद-हिंदवी स्वराज्य के भाल का सिंदूर कायम रखने के लिए-उस वीरांगना ने औरंगजेब सरीखे लाखों की फौज रखने वाले दुश्मन को नाकों चने चबवा दिए। वर्ष 1675 में सातारा जिले के तलबीड गांव में जन्मी ताराबाई हिंदवी साम्राज्य के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते की कन्या थीं। 

वहीं संभाजी महाराज के आदेशानुसार वाई के नजदीक हुई लड़ाई में हंबीरराव वीरगति को प्राप्त हुए थे। ऐसे वीर पिता की छत्रछाया में ही ताराबाई ने घुड़सवारी, तलवारबाजी एवं विविध युद्धकलाओं का प्रशिक्षण लिया था। जब औरंगजेब ने संभाजी महाराज की हत्या की, उसके बाद मराठा राजधानी रायगढ़ को जीतने के लिए मुगलिया फौज ने रायगढ़ किले की घेराबंदी कर दी।

वहीं ऐसे में पूरा राजपरिवार ‘पातशाह’ (बादशाह औरंगजेब) की कैद में न पड़ जाए इसलिए संभाजी महाराज की पत्नी येसुबाई ने अपने देवर राजाराम महाराज को गुप्त मार्ग से घेराबंदी के बाहर निकाल दिया। वहां से लगभग 600 मील दूर, आज के तमिलनाडु स्थित जिंजी में राजाराम महाराज ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। अष्टप्रधान मंडल की नियुक्ति की और जिंजी के अजेय दुर्ग के सहारे राजपाट चलाया।

वहीं छत्रपति राजाराम महाराज एवं उनकी पत्नी महारानी ताराबाई के कार्यकाल में संताजी एवं धनाजी जैसे मराठा वीरों ने औरंगजेब की सेना को त्राहिमाम् कहने पर मजबूर कर दिया। मुगलिया सेना के घोड़े जब नदी का पानी पीने से मुकर जाते, तो उनके अमलदार घोड़ों से पूछते कि क्या उन्हें पानी में संताजी-धनाजी दिखाई दे रहे हैं? संताजी तो औरंगजेब की छावनी पर छापा मारकर शाही डेरे के स्वर्ण कलश भी लूट लाए थे। 

वहीं अपने पति के कार्यकाल में ही सेना खड़ी करना, तोप दल एवं घुड़सवार दल का गठन करने जैसे सामरिक विषयों में भी ताराबाई सक्रिय थीं। राजाराम महाराज के निधन के बाद जब संभाजी महाराज की पत्नी येसुबाई और उनके पुत्र शाहू राजे औरंगजेब की कैद में थे, उस समय स्वराज्य एवं धर्म का परचम लहराए रखने के लिए ताराबाई ने वर्ष 1701 में अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय का राज्याभिषेक करवाया। अपने देश, धर्म और भूमि के लिए ताराबाई ने कई लड़ाइयां लड़ीं। 

वहीं सतत् युद्धरत रहना उनकी सामरिक नीति की महत्ता का परिचायक है। औरंगजेब का आधिकारिक इतिहासकार खासी खान लिखता है कि ताराबाई की रणनीति और उनके आघात का जोर उनके पति से कहीं अधिक था। उन्होंने मळ्गलों को बहुत नुकसान पहुंचाया। ताराबाई की सेना ने वर्ष 1704 में आदिलशाही की राजधानी बीजापुर का संपन्न शहर लूट लिया। छत्रपति शिवाजी महाराज तथा संभाजी महाराज के काल में भी मराठा सेनाएं जो न कर पाईं, वह पराक्रम ताराबाई की सेना ने किया था। उन्होंने मुगलों का सबसे संपन्न बंदरगाह सूरत तीन बार लूटा और स्वराज्य के लिए धन जुटाया।

वहीं ताराबाई ने अपने कार्यकाल में मराठा सेना नर्मदा पार कर मालवा, मंदसौर और सिरौंजा क्षेत्र में भिजवाई। नर्मदा के किनारे रतनपुर में मराठा सेना ने मुगलों की सेना को परास्त कर दिया। इसका अर्थ यही है कि महाड जी शिंदे द्वारा मध्य प्रदेश की मुहिम छेड़ी जाने के लगभग 60-70 साल पहले ही ताराबाई ने मध्य प्रदेश जीत लिया था। इस प्रकार की मुहिमों के लिए ताराबाई ने जुझारू सरदारों की सेना जुटाई थी। 

वहीं उन दिनों औरंगजेब महाराष्ट्र के पन्हाला, रायगढ़, परली आदि दुर्ग जीतता जा रहा था। केवल इसी मुहिम के पीछे मुगल सेना ने ताराबाई के कार्यकाल में पांच वर्ष लगा दिए। किंतु ताराबाई की सेना गंवाए हुए दुर्ग चंद महीनों के अंदर फिर से जीत लेती थी। इसी चक्कर में औरंगजेब को दक्षिण में आकर मराठाओं के साथ लड़ते-लड़ते 20 साल बीत गए थे। 

वहीं महाराष्ट्र के गिरि-कंदराओं वाले इलाके से मळ्गल सेना तंग आ चुकी थी। कई बार औरंगजेब की यह सेना बरसात से आई बाढ़ में बह गई। स्वयं उसकी छावनी भी दो-तीन बार बाढ़ की चपेट में आ गई, लेकिन औरंगजेब का पागलपन खत्म नहीं हुआ।

वहीं मराठा सेना खत्म हो जाए, उनका राज्य खत्म हो जाए, सांस्कृतिक स्थल भ्रष्ट हो जाएं, और मानसिक दृष्टि से आम मराठा व्यक्ति हताश हो जाए, इसके लिए औरंगजेब ने जमीन-आसमान एक कर दिया। अपनी धर्मांध नीति के तहत उसने नासिक का नाम बदलकर गुलशनाबाद, पुणे का नाम बदलकर मुहियाबाद, रायगढ़ का नाम बदलकर इस्लामगढ़ और सातारा का नाम बदलकर आजमतारा कर दिया। किंतु औरंगजेब की मळ्गल सेना के चारों दिशाओं से होने वाले आक्रमण के सामने महारानी ताराबाई ने कभी हार नहीं मानी। 

वहीं उन्होंने कान्होजी आंग्रे को अपने नौदल (नौसेना) का प्रमुख बनाया। रामचंद्र पंत अमात्य, शंकरजी नारायण, परशुराम पंत प्रतिनिधि, धनाजी जाधव, उधाजी चह्वाण, चंद्रसेन जाधव जैसे सरदार एवं सहयोगियों को जुटाकर औरंगजेब को नाकों चने चबवाकर दर-दर भटकने पर मजबूर कर दिया। यह वही समय था, जब अत्याधिक श्रम के कारण औरंगजेब बहुत कमजोर हो गया था और एक पैर से लंगड़ाने भी लगा था। कवि गोविंद ने ताराबाई की वीरता का गुणगान इस प्रकार किया है:l

वहीं औरंगजेब की मृत्यु के बाद वर्ष 1707 में शाहू राजे कैद से रिहा कर दिए गए। उसके बाद एक तरफ ताराबाई और दूसरी तरफ शाहू राजे, ऐसा गृहकलह शुरू हुआ कि मराठा राज्य दो खेमों में बंट गया। ऐन वक्त पर धनाजी जाधव, खंडो बल्लाल और बाद में पुणे जाकर पहले पेशवा बने बालाजी विश्वनाथ जैसे कर्तृत्ववान सरदारों ने ताराबाई का साथ छोड़ शाहू राजे का साथ देने का निर्णय किया। फिर भी वह शौर्यवती स्त्री डगमगाई नहीं। कुछ समय बाद वारणा नदी को सरहद मान छत्रपति शिवाजी महाराज के वारिसों ने दो राजगद्दियां बनाईं। कोल्हापुर के राज्य की व्यवस्था पन्हाला किले से ताराबाई स्वयं देखतीं और शाहू राजे ने सातारा में अपनी राजधानी स्थापित की। 

वहीं आगे चलकर वर्ष 1714 में ताराबाई की सौतन राजसबाई ने बगावत कर अपने बेटे को कोल्हापुर की राजगद्दी पर बिठा दिया और ताराबाई को नजरबंद कर दिया। उसके बाद काफी समय तक वह सातारा में रहीं। इस दौरान राजनीति के कई उतार-चढ़ाव देखे। वह छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्य से लेकर पानीपत में मराठा सेनाओं के पतन तक के घटनाप्रधान काल की साक्षी रहीं। 86 वर्ष की आयु में वर्ष 1761 में उनका देहावसान हो गया।