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यूपी : वाराणसी उस्ताद बिस्मिल्लाह खां और अप्पा जी की युगलबंदी ने बनाया लोकप्रियता का सुनहरा बनाया कीर्तिमान।

यूपी : वाराणसी उस्ताद बिस्मिल्लाह खां और अप्पा जी की युगलबंदी ने बनाया लोकप्रियता का सुनहरा बनाया कीर्तिमान।


वाराणसी। प्राचीन काल से ही काशी धर्म-कला-संस्कृति की राजधानी के रूप में विख्यात रही। शताब्दियां बीतने के बाद भी यह पहचान धूमिल पडऩे के बजाय और मजबूत हुई है। सुर-साज की अनमोल थाती दुनिया को देने वाली काशी के कलाकारों की भी अपनी ही अलमस्ती है। 

वहीं अल्हड़पन और अक्खड़पन तो बनारस की पहचान है और इसे अपने भीतर जीते इन कलाकारों का संसार अनचीन्हा नहीं, बल्कि आत्मीयता का नया अध्याय रचता है। काशी की आत्मा में बसे संगीत की कीर्ति स्तंभ गिरिजा देवी की जयंती जन्म : आठ मई, 1929, निधन : 24 अक्टूबर, 2017 के बहाने उन्हें और उनमें शहर-ए-बनारस को याद कर रहे हैं कुमार अजय। 

वहीं साज से आवाज की और अलग-अलग घरानों के अलहदा चलन व रिवाज की कुछ चुनिंदा युगलबंदियां भारतीय शास्त्रीय संगीत के ऐश्वर्य-वैभव के कीर्ति शिखर सा मान रखती हैैं। रसिकजन के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाली जादुई प्रस्तुति की श्रेणी में अपना वजूद दर्ज कराने वाली ऐसी ही यादगार प्रस्तुतियों की सूची में शीर्ष पर अंकित है शहनाई की लरज व ठुमरी के षडज़ की मधुरिमा में पगी एक ऐतिहासिक युगलबंदी का।

वहीं 1970 के दशक की बात है। संगीत जगत की दो महान हस्तियों भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब व ठुमरी साम्राज्ञी पद्मविभूषण डा. गिरिजा देवी ने गायन और वादन की एक ऐसी युगलबंदी की जो अपनी लोकप्रियता से इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई। इस प्रस्तुति की विशेषता है।

वहीं स्वरसिद्धि के चरम पर पहुंचकर साज व आवाज का इस तरह एकाकार हो जाना कि यह फर्क करना मुश्किल हो जाए कि स्वर और सुर के रूप में दिल की गहराइयों तक उतर रही मिठास का श्रेय किसके नाम अंकित किया जाए। दुनियाभर के संगीतानुरागियों के बीच आज भी इस अविस्मरणीय प्रस्तुति की सर्वाधिक मांग है। डिस्क से लेकर यू-ट्यूब तक पर अब भी इस युगलबंदी की धाक है। जमाना गुजरा किंतु प्रशंसकों की संख्या अब भी लाखों-लाख है।

वहीं चर्चा का यह दौर चल रहा है वैशाख की सुलगती दोपहरी में भी हरीतिमा के चलते तपोवनी शांति और शीतलता से भरे-पूरे अप्पाजी के संजय गांधी नगर स्थित आवास पर अप्पाजी की जयंती (आठ मई) के अवसर पर उनके बारे में कुछ सुनने-सुनाने की गरज से अपनी जिज्ञासाओं के साथ हम बैठे हैैं।

वहीं अप्पाजी के भातृज प्रकाश भाई के सामने। स्मृतियों का वातायन पूरी तरह खोलकर बैठे प्रकाश के जेहन में कौंधता है 20 साल पहले का वह दौर जब बुआ जी के जन्मदिन पर बनारस में उनके सम्मान में उत्सव सजाया गया।

वहीं उस्ताद अमजद अली खां, पं. शिवकुमार शर्मा, किशोरी अमोनकर, हरिहरन जैसी हस्तियां जुटी थीं घर पर अप्पाजी को बधाई देने। उस दिन तो गजब महफिल सजी। एक तरफ अप्पाजी का सुदीर्घ आलाप- 'बाबुल मोरा नइहर छूटो जाए... तो दूसरी तरफ उनका साथ देने बैठे हरिहर की लयबंदी का बेमिसाल मिलाप। साथ में अमजद अली खां के सरोद की झंकार...। एक ऐसा अहसास मानो हरियाली वादियों से होकर आ रहे पवन झकोरों के स्वागत में कोई सुरों का मखमली कालीन बिछा रहा हो।

वहीं कोलकाता की भागमभाग दिनचर्या को वहीं खूंटी पर टांगकर अप्पाजी जब बनारस आती थीं तो सुकून में डूब जाती थीं। मिलना-मिलाना, गलचौर की गोष्ठियां सजाना, मिलने आई मालिनी अवस्थी व सुनंदा शर्मा जैसी शिष्याओं के मुंह लगना और लगाना। कब दिन ढला, कब शाम ढली और कब रात गुजर गई, पता ही नहीं चलता था। अप्पाजी अपने जमाने के अजब-गजब किस्से सुनाती थीं। जानबूझकर बैठकी को लंबा खींच जाती थीं। लोभ बस इतना कि सबके साथ खाने-खिलाने का बहना मिल जाए।

वही खान-पान के मामले में अप्पाजी की रुचि विशुद्ध बनारसी थी। खाना उन्हें भले ही चार कौर खाना हो, थाली में कटोरियों की संख्या आधा दर्जन से कम तो न होनी चाहिए थी। बनारस आकर उनका यह शौक उन्हें बच्चा बना देता था। सारी हिदायतें कचरे की पेटी में। आइसक्रीम, कुल्फी, मलइयो, यहां तक कि बर्फ का गोला तक। कोई बराव नहीं। जो आया चाव से खाया, टोकने वालों को अंगूठा दिखाया।

वहीं खाने से भी ज्यादा अप्पाजी को खिलाने का शौक था। सामूहिक रसास्वादन के लिए पार्टी जमाने के बहाने वह ढूंढ़ निकाला करती थीं। प्रकाश भाई बताते हैैं कि वे खुद भी स्वाद जमाने में सिद्धहस्त थीं। उनका पसंदीदा आइटम हुआ करता था। कश्मीरी लुच्छी शाक का एक प्रकार। जो कोई भी कश्मीर जाता था, उनके लिए लुच्छी का तोहफा जरूर लाता था। यह एक ऐसा व्यंजन था जो अप्पाजी खुद अपने हाथों से पकाती थीं और बार-बार पूछ-पूछकर मेहमानों को खिलाती थीं।