NEW DELHI
नई दिल्ली : फूल वालों की सैर भाईचारे और गंगा जमुनी तहजीब का अनोखा संगम बंधुत्व भाव और पारस्परिक सौहार्द के साथ मनाया जाता है।( विशेष लेख)
एजेंसी डेस्क : नई दिल्ली : विश्व की तमाम संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति का आदर और जीवंतता इसलिए कायम है कि यह आपसी सहमति, बंधुत्व-भाव और पारस्परिक सौहार्द से निर्मिंत है। ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि आदिकाल से भारतीय संस्कृति का आधारभूत तत्व विश्व का कल्याण है। दरअसल, भारतीय संस्कृति के दो खास पहलू हैं-आध्यात्मिकता, और धार्मिंक सहिष्णुता। आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति का आंतरिक पहलू है और धार्मिंक सहिष्णुता बाहरी। गौरतलब है कि आध्यात्मिकता, धार्मिंक सहिष्णुता और गंगा-जमुनी तहजीब के अनूठे मिशण्रका प्रतीक है ‘फूल वालों की सैर’ का मेला। इसका भावार्थ है-फूलों की बारात यानी दिल्ली के फूल विक्रेताओं द्वारा संचालित वार्षिक उत्सव।तीन दिवसीय त्योहार वष्रा ऋतु के बाद अक्टूबर महीने में पुरानी दिल्ली के ऐतिहासिक क्षेत्र किला राय पिथौरा यानी महरौली इलाके में धूमधाम से मनाया जाता है।
हालांकि जलवायु परिवर्तन की वजह से इस बार 61 सालों के बाद अक्टूबर महीने में रिकार्डतोड़ बारिश अक्टूबर महीने में हो रही है। यह महोत्सव दिल्ली की मिली-जुली सौहार्दपूर्ण संस्कृति का नायाब उदाहरण पेश करता है। असलियत में इस मेले का खास आकषर्ण है, गंगा-जमुनी तहजीब के तौर पर हिंदू-मुस्लिम सद्भाव और भाईचारे का प्रतीक रंग-बिरंगे खुशबूदार फूलों का पंखा और फूलों की चादर जो दिल्लीवासियों की ओर से दिल्ली के खास मेहमानों द्वारा क्रमश: महरौली के योगमाया मंदिर और कुतुब परिसर के निकट स्थित सूफी ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह पर चढ़ाए जाते हैं।
जहां तक फूल वालों की सैर के महोत्सव की ऐतिहासिकता का प्रश्न है तो स्पष्ट तौर पर इसकी शुरुआत मुगल बादशाह अकबरशाह द्वितीय के शासनकाल में बादशाह की पत्नी बेगम मुमताज ने की थी। गौरतलब है कि मुगल बादशाह के शहजादे मिर्जा जहांगीर का किसी बात पर ब्रिटिश रेजीडेंट से झगड़ा हो गया था, फलस्वरूप अंग्रेजों ने शहजादे को सजा सुनाकर इलाहाबाद जेल में बंद कर दिया था। बेगम मुमताज अपने बेटे मिर्जा जहांगीर से बहुत प्यार करती थी, उसने मन्नत मांगी कि बेटे की रिहाई होने पर सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी की मजार पर फूलों की चादर चढ़ाएगी।
बेगम की दुआ शीघ्र कबूल हुई, अंग्रेजों व मुगलों में सुलह हो गई और उन्होंने मिर्जा जहांगीर को रिहा कर दिया। इस खुशी में ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह और योगमाया मंदिर समेत पूरे महरौली क्षेत्र में तीन दिन तक महोत्सव मनाया गया तथा दरगाह व मंदिर को हिंदू-मुस्लिमों ने परस्पर मिलकर खास तौर से रंग-बिरंगे फूलों से सजाया। दरअसल, ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी और ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया सूफी परंपरा में चिश्ती सिलसिले के ऐसे प्रसिद्ध सूफी संत हुए हैं, जो दिल्ली के सभी संप्रदायों के लोगों में बेहद लोकप्रिय थे।
असलियत में इन सूफी संतों का समकालीन समाज को कर्मकांड, अंधविश्वास, जातिवाद व सांप्रदायिक द्वेष जैसी बुराइयों से मुक्ति दिलाने में विशेष योगदान रहा। आम तौर पर विद्वानों में मान्यता है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ शब्द से हुई है यानी पवित्र, आत्मसंयम व ईमान का जीवन जीने वाला पुरुष जो इस्लामी रहस्यवाद वहदत-उल-वुजूद अर्थात परमात्मा के एकत्व सिद्धांत में विश्वास रखता है, और परमात्मा से अटूट मोहब्बत व मानवता की सेवा ही जिसका एकमात्र लक्ष्य है।ऐसे सूफी संत ख्वाजा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए लोग अंजुमन-सैर-ए-गुल-फरोशां सोसाइटी द्वारा आयोजित फूल वालों की सैर के मेले में एकत्र होते हैं, और पारस्परिक सौहार्द व भाईचारे की निरंतरता को आगे बढ़ाते हैं। अंग्रेजों ने 1942 में इस मेले पर प्रतिबंध लगा दिया था। आजादी के बाद 1962 में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सम्मिलित प्रयासों से गंगा-जमुनी तहजीब की परंपरा को और प्रगाढ़ करने के लिए फूल वालों की सैर मेले को फिर शुरू किया गया।
आज इस महोत्सव की छटा पारस्परिक प्रेम व भाईचारे बानगी अलग ही नजर आती है। इसकी शुरु आत सूफी संत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह से आध्यात्मिक जुलूस से होती है। महरौली काकी की दरगाह पर जुलूस का समापन होता है। जुलूस का नेतृत्व सूफी कव्वाल और संगीतकार करते हैं। राष्ट्रीय एकता के संदेशवाहक इस मेले का मुख्य आकषर्ण है कि हर वर्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल परंपरागत ढंग से फूलों का पंखा व छत्र दरगाह और मंदिर में चढ़ाते हैं।
एलजी हाउस और दिल्ली सचिवालय में सद्भावनापूर्ण शहनाई वादन होता है। इंडिया गेट पर भी फूलों के पंखे, शहनाई और ढोल-ताशे के साथ सद्भावना जुलूस निकाला जाता है। महरौली के डीडीए पार्क एवं जहाज महल में कुश्ती, कबड्डी और अन्य खेलों का आयोजन किया जाता है।