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बाल दिवस विशेषलेख : बड़ों को बच्चों से भी लेनी चाहिए ये सीख।

बाल दिवस विशेषलेख : बड़ों को बच्चों से भी लेनी चाहिए ये सीख।


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एजेंसी डेस्क:: बाल दिवस, विशेष लेख, सीख की सबसे निराली बात है कि यह उम्र के बंधन से बहुत परे है। हम 80 वर्षीय बुज़ुर्ग से भी सीख सकते हैं और दो वर्षीय शिशु भी हमें सिखाता है...। चूंकि आज बाल दिवस है, तो इस बार छुटपन से ही सीखने की योजना है।

एक शिशु जब जन्म लेता है, तो वो कुछ भी सीखकर नहीं आता है। समाज और परवरिश वे कारक हैं जिनके आधार पर उसकी शिक्षा की शुरुआत होती है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी व अन्य परिजन इस परवरिश को बहुत हद तक समाज के तौर-तरीक़ों के अनुरूप रखते हैं। यह रहन-सहन, समझ की परवरिश है, जिसकी शिक्षा बच्चे को एक उम्र का सफ़र तय करके ही मिलती है। जन्म से लेकर लगभग तीन वर्ष तक शिशु अपने सबसे पवित्र रूप में होता है, उस अवस्था में होता है, जहां वो सबसे मासूम है।समाज से अच्छा-बुरा, कुछ भी उसने ग्रहण नहीं किया है। इस अवस्था में भले नन्हा नया-नया सीख रहा है पर वो सिखा भी रहा है, बस बड़ों को ध्यान देने की आवश्यकता है। आइए एक नज़र इन्हीं शिशु गुणों पर डालते हैं।

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आत्म-संदेह निषेध,,,,,

इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि आत्मविश्वास का सही मात्रा में होना। हम अक्सर देखते हैं जब घरों में दीपावली की सफ़ाई होती है तो छोटे-छोटे बच्चे बड़े उत्साह के साथ उसमें भाग लेते हैं। वे अपनी क्षमता से अधिक बोझ उठाने की कोशिश करते हैं। वे बड़ों को कोई कार्य करते देखते हैं, तो लाख मना करने के बावजूद उसे ही करने की ज़िद करते हैं। वे कभी ख़ुद पर प्रश्न नहीं उठाते कि ये उनकी क्षमता अनुरूप है भी या नहीं। उनके भीतर एक विश्वास होता है, जो किसी भी काम को कर डालने के उनके विचार का समर्थन करता है। बस यह ख़ूबी हमें बच्चों से सीखना होगी। यदि इस ख़ूबी में हम ढल गए तो कई काम हम ऐसे कर डालेंगे जो हमें लगते थे कि हमारे बस के नहीं हैं।

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हम उम्र लगे अपना-सा,,,,,

मॉल, रेस्तरां या किसी पारिवारिक समारोह में छोटे बच्चे जब पहली बार जाते हैं तो वे सबकुछ बड़े ध्यान से देखते हैं, लेकिन तभी यदि उनके सामने कोई हमउम्र शिशु आ जाए तो वे उत्साहित हो जाते हैं, ख़ूब ख़ुश होते हैं, उससे मेल-मिलाप बढ़ाने का प्रयास करते हैं। वहीं बड़ों की बात की जाए तो वे हमउम्र व्यक्ति के प्रति कहीं न कहीं ईर्ष्या भाव रखते हैं। ऐसा करके हम अपना ही नुक़सान करते हैं इसलिए बहुत आवश्यक है कि हमउम्र व्यक्तियों के प्रति प्रेम भाव रखने का ये आचरण हम शिशुओं से सीख लें। सहपाठी, सहकर्मी इत्यादि की उपलब्धियों को सराहें, ज़रूरत पर उपस्थित रहें तो जीवन शिशु की तरह ही सरल और सुंदर हो जाएगा।

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दिनचर्या की पाबंदी,,,,,

छोटे बच्चों के जीवन में अनुशासन की बात सुनने पर यह विचार एक बार को ज़रूर आता है कि अनुशासन तो उन्हें हम ही ने सिखाया। कई मायनों में अनुशासन हमने सिखाया है तो कहीं न कहीं उनके जीवन से उसे हटाया भी है। छोटे बच्चे प्रतिदिन एक तय समय पर सोते-जागते हैं और निश्चित समय पर अन्न भी ग्रहण करते हैं। यदि कोई शिशु रात्रि नौ बजे सोता है, तो भले ही टीवी क्यों न चल रहा हो, वो उस समय पर सो जाएगा। वो किसी भी क़ीमत पर अपनी दिनचर्या को नहीं तोड़ता है। तय समय से सोना, पर्याप्त नींद लेना और तय समय पर ही जाग जाना, हमारी आधी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को समाप्त कर सकता है।

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जिज्ञासा और ऊर्जा,,,,,

छोटे बच्चे वो सब सीखना और जानना चाहते हैं, जो वे अपने सामने किसी को करते हुए देखते हैं। कई छोटे बच्चे रिमोट, मोबाइल व तकनीक से जुड़े अन्य उपकरणों को बहुत जल्दी समझ लेते हैं। डांस का कोई स्टेप हो या कोई गीत, उसे भी वो जल्दी से सीख लेते हैं। सीखना तो हम भी बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन सीख नहीं पाते हैं क्योंकि हमारे सीखने में और बच्चों के सीखने में अंतर यह है कि हम ध्यान को केंद्रित नहीं कर पाते। दूसरी बात, तकनीक से जुड़ा कोई नया सामान हाथ में आ जाए तब मन में एक भय होता है कि हम इसे बिगाड़ न दें। प्रयास और सीखने की चाह के बीच जब संतुलन रहता है तो सीखना आसान हो जाता है।

(संपादकीय),ए,के,केसरी,,,,,