संपादकीय
संपादकीय!!मां के आंचल की छांव! और मां के धरती पर होने की महिमा!!!
संपादकीय:: मां यह एक ऐसा शब्द है जिसके बोलते ही महसूस करते ही मन और शरीर दोनों पवित्र हो जाते हैं।
इसका बर्ताव सबके लिए एक जैसा होता है। यह तो पत्थर पर खींची हुई लकीर है। शायद यही अंतर समय और मनुष्य में है। समय के बिल्कुल विपरीत मनुष्य के लिए जो कल तक गलत था, वही आज के लिए सही बन जाता है।उसके लिए जरूरतें गिरगिट की तरह रंग बदलती रहती हैं। जबकि वह भूल जाता है कि ऊपर और नीचे वाले जहां के बीच छोटा-सा ही अंतर होता है। जब तक सांस चल रही है तो यहां और रुक गई तो वहां।
आदि मानव के शर्म का रास्ता निर्वस्त्र से होते हुए पत्तों, चर्मों के पड़ाव तक पहुंचा। खुद को गुफाओं-कंदराओं में बसाने लगा। धीरे-धीरे जनधारा में मिलकर समाज का निर्माण किया। मां का आंचल तो एक बहाना है। बच्चे आंचल से खेलते हैं और मां बच्चों की सेवा कर देती है। वह सिर पर तेल डालकर सिर की मालिश करना हो या फिर माथे पर काजल की बिंदी लगाकर चोटी गूंथना, चोटी में फूलदार लट्ट बांधना और रंगीन कुरता-टोपी पहनाना, कन्हैया बनाकर तैयार करना और प्यार से बलइया लेना कोई भला भुला सकता है!
मां का आंचल देखते-देखते, कब घुटनों से रेंगते-रेंगते, कब पैरों पर खड़े हुए, ममता की छांव में जाने कब बड़े हुए, पता ही नहीं चलता। यह टीका ठीक वैसा ही है जैसे काला टीका और दूध मलाई है। मां अपने आंचल की छाया में छिपा लेती है। जीने का सलीका हमें सिखलाती है। आंचल से आंसू पोंछते हुए चाहे जितनी परेशानी हो, हमारे लिए मुस्कुराती है।
वह हमारी खुशियों की खातिर दुखों को भी गले लगाती है। आंचल को हाथ में पकड़े हर फर्ज निभाने का आशीर्वाद देती है। उसके आंचल में इतनी शक्ति होती है कि हम पर चाहे जितने दुख के बादल छा जाए, लेकिन वह धूप बनकर खिल जाती है। उसका आंचल ही है जो हमें जीवन की हर दौड़ में हौसला बढ़ाता है।
आजकल के बच्चे कंक्रीट के जंगलों वाले भवनों में चारदिवारी के भीतर बाहर की अर्धचेतनावस्था वाली दुनिया को समझने का प्रयास कर रहे हैं। भोजन का चित्र देखकर पेट नहीं भरता। भीतर बैठकर बाहर की दुनिया नहीं समझी जाती। निबंध-भाषणों से संस्कृति, रीति-रिवाजों की रक्षा नहीं की जा सकती। दिखावे की पूंछ पकड़कर असलियत की नदी पार नहीं की जाती।
मां के आंचल से बड़ा इस दुनिया में कुछ नहीं है। कहते हैं, जब भगवान को यह एहसास हुआ कि वे हर जगह उपस्थित नहीं हो सकते तो उन्होंने मां की रचना की और मां कहीं हमसे छूट न जाए, इसके लिए आंचल की सृष्टि हुई। इस तरह आंचल प्रेम और स्नेह का आधार बन गया। समस्त संसार का चिह्न बन गया। यह एक कपड़ा नहीं, बल्कि एक भावना है। यह हमारे अस्तित्व का एक ऐसा अंश है, जिसे समझने के लिए स्वयं मां की भावनाओं को अनुभव करना पड़ता है।
दरअसल, मां का आंचल एक ऐसा एहसास है, जो हमें भावुकता की लहरों की सैर कराता है। इसके बिना संसार असंभव-सा लगता है। पालन-पोषण अधूरा-सा लगता है। कई दुर्भाग्यशाली मां के आंचल की कमी में दिन-रात तड़पते रहते हैं। वे सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें मां का आंचल प्राप्त होता है। उन बच्चों के दुख का बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है, जिनके बचपन को मां के आंचल की छांव नहीं मिली।
हालांकि वे बच्चे भी आखिर जीते ही हैं और ऐसे कई बच्चे अपने बूते अपनी पहचान भी बनाते हैं। आजकल बच्चे मां के आंचल से ओझल होते जा रहे हैं। विशेषकर शहरी बच्चे धान की भांति आंचल के ज्ञान से भी शून्य होते जा रहे हैं। शहरी बच्चों के लिए आंचल का ज्ञान उतना ही, जितना धान के बारे में पेड़, पौधा या लता होना है।
आज भी गर्म बर्तन चूल्हे से उतरते समय मां के आंचल को बहुत याद करते हैं। यही वह आंचल था जो कभी रोते हुए बच्चों के आंसू पोंछता तो कभी सुलाने का बिस्तर बन जाता था। मच्छर-मक्खी के भिनभिनाने से पहले आंचल पंखा बनकर लहराने लगता था। घर पर अचानक आ धमकने वाले अतिथियों से डरकर छिपने का सबसे सुरक्षित स्थान आंचल ही तो था।
नन्हे-नन्हे कदमों से चलने का अभ्यास इसी आंचल को पकड़कर किया जाता था। सर्दी, बारिश, गर्मी धरती पर जब आएं, तब आएं, लेकिन मजाल जो मां के लल्ले को छू पाए। मां के आंचल को पार करने का दुस्साहस कोई मौसम नहीं कर पाता था। हमारे पसीने को पोंछने और पुचकारने का साधन मां का आंचल था।
मां आंगन में उगी सब्जियां, खिले फूल या फिर चुनी लकड़ियां अपने आंचल में भर ले आती थी। अपने लल्ले के लिए खेल-खिलौने, मिठाई आदि खरीदने के लिए मां अपनी दुनिया भर की दौलत आंचल में ही तो बांधती थी। मां हमारी जिंदगी में बहुत अनमोल है और उसका आंचल किसी पेड़ के छाया के समान है। भगवान भी मां का प्यार पाने के लिए कभी-कभी धरती पर अवतरित होकर आते हैं जिसका सीधा एवं सच्चा उदाहरण हमारे आदि पुराणों में मिलता है।
(लेखक),,,ए,के,केसरी