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विशेष लेख : मानवतावादी मूल्यों के संस्थापक थे संत रविदास,,,।

विशेष लेख : मानवतावादी मूल्यों के संस्थापक थे संत रविदास,,,।


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विशेषलेख:संपादक,की कलम से, भारत सदा से ही संत-महात्माओं की कर्मभूमि रही है। यह सौभाग्य ही है कि यहां एक से बढ़कर एक महान और दिव्य संतों एवं महात्माओं का अवतरण हुआ है।

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आज हम आपको बताते हैं कि उनमें से एक प्रमुख संतगुरु रविदास जी का अवतरण मध्ययुगीन संक्रमण काल के दौरान धर्मनगरी काशी में हुआ था। हालांकि अन्य अनेक सिद्ध संतों की तरह ही उनके जन्म को लेकर भी कोई उपयुक्त एवं प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

महान संत नाभादास द्वारा रचित 'भक्तमाल' में रविदास जी के स्वभाव और उनकी चारित्रिक दिव्यता का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार दिव्य संत प्रियादास कृत 'भक्तमाल' की टीका के अनुसार चित्तौड़ की 'झालारानी' जो महाराणा सांगा की पत्नी थीं, रविदास जी की शिष्या थीं। इस दृष्टि से देखा जाये तो रविदास जी का जीवनकाल 1482-1527 ई. यानी विक्रम संवत 1539-1584 के बीच ही था। मान्यता है कि चित्तौड़ की वह रानी मीराबाई थीं, जिन्होंने रविदास जी का शिष्यत्व ग्रहण किया था। मीराबाई ने स्वयं भी उनके प्रति अपने शिष्यत्व-भाव को व्यक्त किया है, 'गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी, सतगुरु सैन दई जब आके जोत रली।' बहरहाल, रविदास जी के संबंध में इतना तो सभी मानते हैं कि वे रविवार को पड़ी किसी माघ महीने की पूर्णिमा तिथि को काशी की धरती पर अवतरित हुए थे। रविवार को जन्म लेने के कारण उनका नाम 'रविदास' रखा गया।

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रविदास जी को कई नामों से जाना जाता है। पंजाब में वे 'रविदास', उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में 'रैदास, गुजरात एवं महाराष्ट्र में 'रोहिदास' और बंगाल में 'रुइदास' के नाम से जाने गये। वहीं कई पुरानी पांडुलिपियों में उनका नाम रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास भी अंकित हैं। रविदास जी का जन्म काशी के मांडुर नामक गांव के एक चर्मकार परिवार में हुआ था, जिसकी पुष्टि उन्होंने स्वयं भी की है। मांडुर गांव आज मंडुवाडीह नाम से जाना जाता है, जो उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में स्थित मंडेसर तालाब के किनारे बसा हुआ है। यहीं पर मांडव ऋषि का आश्रम भी अवस्थित है। रविदास जी के जन्म के समय देश के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन कायम हो चुका था।

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संत के रूप में रविदास जी की स्वीकृति एवं ख्याति संपूर्ण भारत में फैल चुकी थी। समाज में आज मानवता वादी मूल्यों की पुनर्स्थापना करने वाले रविदास जी ने लिखा, 'रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच, नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की नीच।' अर्थात् व्यक्ति जन्म से नहीं, बल्कि अपने कर्म से 'नीच' होता है। महान संत, देशभक्त, समाज सुधारक, आध्यात्मिक गुरु, भक्ति आंदोलन के महत्वपूर्ण कवि रविदास आजीवन जातीय, लैंगिक, धार्मिक-सामाजिक एवं सांप्रदायिक विद्रूपताओं केविरुद्ध अपने दोहों और पदों के माध्यम से लोगों में जागृति लाने का प्रयास करते रहे, ताकि समाज में मौजूद विभाजनकारी शक्तियों को अशक्त कर देश को एकसूत्र में पिरोया जा सके।उन्होंने अपनी कविताएं मूलतःब्रजभाषामेंलिखीं किंतु उनमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली एवं रेख्ता यानी उर्दू-फारसी के शब्दों का भी उपयोग किया। उनके लगभग चालीस पद पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहिब' में भी संकलित किये गये हैं।

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सांप्रदायिक सद्भावएवंसामाजिक समरसता के आध्यात्मिक उपासक रविदास जी का संपूर्ण जीवन ही संघर्षों और चुनौतियों की महागाथा रहा है। उन्होंने जीवन और समाज के तमाम अंतर्विरोधों के समानांतर समाधानों की एक फुलवारी लगायी, जिसकी महक समाज में आज भीव्याप्तहैऔरसांप्रदायिक सद्भाव तथा सामाजिक समरसता के उपासकों को रोमांचित करती है। रविदास जी के पिता का नाम रग्घु एवं माता का घुरविनिया था। वे वैष्णव भक्तिधारा के महान संत स्वामी रामानंद के शिष्य थे। इसीलिए संत कबीरदास उनके समकालीन और गुरुभाई माने जाते हैं। स्वयं कबीरदास जी ने 'संतन में रविदास' कहकर उन्हें मान्यता भी दी है। रविदास जी मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करने के साथ-साथ उन्हें भाव-विभोर होकर गाते भी थे। वे धार्मिक विवादों को सारहीन एवं निरर्थक मानतेथे,उन्होंनेअभिमान को भक्तिमार्ग में बाधक बताया था, 'कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै, तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।'

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