शब ए बरात विशेष लेख
शबे बरात विशेष लेख : शब-ए-बारात का हिंदुस्तानीकरण,,इसका महत्व और नसीहत,पढ़े विशेष लेख,,,ए.के.केसरी,,,।
:::::शब्बे बरात विशेष लेख::::: इस्लाम के नजरिए से देखें तो मुसलमानों के दो ही मुख्य त्योहार हैं। "ईद और बकरीद"। मगर भारतीय मुसलमानों के हिस्से कई ऐसे त्योहार आ गए हैं, जिनका इस्लाम में कोई खास महत्व नहीं, पर इसके मनाने का तरीका खालिस 'हिंदुस्तानी' है।
शब-ए-बारात को ही ले लें, भारत के बड़े हिस्से में मुसलमान इसे बिल्कुल दीपावली की तरह मनाते हैं। दीपावली की तरह ही घरों की साफ-सफाई करते हैं। घरों में रोशनी और रात भर इबादत करते है।
दीपावली मनाने वालों की आस्था होती है कि उक्त रात पूजा-अर्चना करने वालों के घर लक्ष्मी की देवी आएंगी और भक्त की मुराद को पूरी करेंगी।
कुछ ऐसी ही भावना शब-ए-बारात की रात इबादत करने वाले मुसलमानों की होती है। इस्लाम के मानने वालों की धारणा है कि इस रात इबादत करने से दुआ कबूल होती है। गुनाह माफ किए जाते हैं। फज्र की नमाज से पहले कतिपय लोग अपने पूर्वजों की कब्र पर इसलिए जाते हैं कि एक तो उन्हें याद किया जाए। दूसरा, उनके मगफिरत की दुआ की जाए।
बता दें कि शाबान 8 वीं इस्लामी महीने का नाम है जिस महीने में 'शब-ए-बारात' मनाया जाता है। इस्लाम और कुरान में इसे लेकर कुछ विशेष नहीं है। इस्लामिक मान्यता है कि शब-ए-बारात की रात साल भर के फैसले किए जाते हैं।
कौन दुनिया में आएगा, कौन दुनिया छोड़ेगा, कौन क्या पाएगा कौन, क्या खोएगा ? ऐसे में हर मुसलमान चाहता है कि रातभर इबादत कर अल्लाह से अपने और अपने चाहने वालों के लिए कुछ 'खास' मांग ले। एक मत है कि इसी महीने अरब वाले पानी की खोज में निकले थे, और हुरमत वाले महीनों घरों में कैद रहने के बाद इस महीने जंग के लिए मैदान में आए थे।
शब-ए-बारात- दो शब्दों, शब और बारात से मिलकर बना है। शब का अर्थ रात है और बरअत का मतलब 'बरी होना ' यानी मुक्ति पाना। अपनी बुराइयों से निजात पाना। इस्लामी कैलेंडर के अनुसार, यह रात साल में एक बार शाबान महीने की 14 तारीख को सूर्यास्त के बाद शुरू होती है। मुसलमानों के लिए यह बेहद फजीलत (महिमा) की रात मानी जाती है।
इस रात विश्व के सारे मुसलमान अल्लाह की इबादत करते हैं। रात को दुआएं मांगते हैं।अपने गुनाहों की तौबा करते हैं। इससे मुक्ति पाने का खुद और अल्लाह से वादा करते हैं,इसके पीछे मान्यता है कि शब-ए-बारात में इबादत करने वालों के सारे गुनाह माफ कर दिए जाते हैं। केवल उन लोगों के गुनाह तब तक माफ नहीं होते,जब तक वे गुनाहों को पूरी तरह से छोड़ देने का संकल्प नहीं लेते।
एक वर्ग उन लोगों का है जो यह मानता है कि सारी रात जागकर इबादत की जाए, वहीं दूसरे वर्ग के लोग रात के जागने कोअधिक महत्वपूर्ण नहीं देते। इस पर अलग-अलग मत रखने वालों की अलग-अलग राय है।
एक वर्ग में जहां हलवा और मीठे पकवान बनाकर खुद खाने और बांटने का रिवाज है, वहीं इसके घोर विरोधी भी हैं। या यूं कहें कि मुसलमानों के जिस वर्ग पर भारतीय संस्कृति की गहरी छाप है, उसे अच्छे पकवान बनाने, बांटने, नियाज-फातिहा करने में किसीतरह की कोई हिचकिचाहट नहीं होती है।
अच्छा भोजन पका कर गरीबों में बांटना गलत नहीं है।मगर इस्लाम को हदीस और कुरान की रोशन में देखने वालों को इस पर कतई विश्वास नहीं। इस वर्ग का यहां तक कहना है कि हलवा या अच्छे पकवान यदि गरीबों को खिलाना ही है तो एक दिन क्यों, साल भर क्यों नहीं ?
हालांकि शब-ए-बारात को उत्सव की तरह मनाने वालों की दलील है कि फितरा के नाम पर केवल रमजान में ही क्यों गरीबों की क्या मदद की जाए या जकात के नाम पर ही दान क्यों दिया जाए।
हर दिन ऐसा क्यों नहीं किया जाए ?
बहरहाल, यह तो मुसलमानों के फिरके की दलीलें हैं। यदि 'सही हदीस' के नजरिए से शब-ए-बारात को देखें तो इस रात का अपना महत्व है। इसमें मनुष्य के जन्म और मृत्यु का फैसला होता है।
कौन क्या पाएगा क्या खोएगा ?
सारे फैसले उसी रात तय होते हैं। फरिश्तों को उनके रजिस्टर थमाए जाते हैं, सहाबियों ( पैगंबर मुहम्मद साहब के अनुयायी) के हवाले से यह बात सामने आई है कि इस रात अल्लाह से हमें अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए विशेष प्रार्थना करनी चाहिए।
साथ ही, इस रात नींद त्याग कर कब्र में आराम से सोने का प्रबंध करना चाहिए। यानी गुनाहों से तौबा कर खुद को ऐसा पाक-साफ करना चाहिए कि मरने के बाद हिसाब-किताब में कोई कमी न रहे। मुसलमान मानते हैं कि मरने के बाद उनके कर्मों के हिसाब-किताब के बाद ही स्वर्ग-नरक का निर्धारण होगा।
शब-ए-बारात की रात कोई विशेष इबादत का कहीं सबूत नहीं मिलता। सिवाए इसके कि हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस महीने में कसरत से रोजे रखते थे जितना किसी और महीने में नहीं रखा करते थे। इस बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने फरमाया कि यह वह महीना है जब अल्लाह के सामने उनके बंदों के आमाल यानी कर्म पेश होंगे। मैं चाहता हूं कि जब मेरे रब के आगे मेरे आमाल पेश किए जाएं तो मैं रोजे में रहूं।
इस्लाम में संतुलन को महत्व दिया गया है।यानि केवल इबादत कर हम ईश्वर को नहीं पा सकते। ईश्वर को पाने के लिए कर्तव्यों का निर्वहन जरूरी है। मानव धर्म निभाना होगा। सगे-संबंधियों, पड़ोसियों, मुहल्ले, समाज तथा देश,सबका हितकर बनना होगा।
तभी हम अपने सारे पापों से मुक्ति पा एक नई शक्ति और उत्साह के साथ युग परिवर्तन के प्रयासों से जुड़ सकते हैं। अन्यथा एक क्या अनेक रातें जागकर भी हमारे हाथ कुछ भी नहीं आने वाला है।
अगर हम सही मायने में नबी मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मानने वाले हैं तो हमें भी इस महीने में अधिक से अधिक रोजे रखने का प्रयास करना चाहिए और हर उन चीजों से बचना चाहिए जो नबी को नापसंद था। वरना हम पुण्य कमाएंगे कम, पाप के भागीदार अधिक बन जाएंगे।
क्या करें और क्या न करें ?
यह सच्चे मुसलमान को करना चाहिए,,,,,,,
-फातिहा-नियाज को मान्यता नहीं देने वालों को भी रात भर इबादत करने से परहेज नहीं होना चाहिए।
-शब-ए-बारात के अगले दिन लोग रोजा रखते हैं। पैगंबर मुहम्मद साहब इस महीने कसरत से रोजे रखते थे। ऐसे में उनके अनुयायी को रोजे रखने से भी ऐतराज नहीं होना चाहिए।
-शब-ए-बारात की रात इबादत में यकीन रखने वालों को इसका भरपूर लाभ उठाना चाहिए।
-वे मुसलमान जो शब-ए-बारात पर मीठे पकवान बनाते हैं, गरीबों और रिश्तेदारों के साथ अपने पड़ोसियां का भी ध्यान रखे।
-अगर आपका पड़ोसी गैर-मुस्लिम है तो उन्हें विशेष रूप से अपनी खुशियों में शामिल करें।
-मौजूदा माहौल में अपने पड़ोसियों से बेहतर रिश्ता रखना बेहद जरूरी है।
यह सच्चे मुसलमान को नहीं करना चाहिए,,,,,,,
-शब-ए-बारात इबादत की रात है. रात केवल इबादत में गुजारें।
-देश के कई हिस्से में दिवाली की तरह लोग पटाखे फोड़ते हैं। ऐसे वक्त अपने पड़ोसियो का अवश्य ख्याल रखें।
-ऐसा कोई काम न करें जिससे पड़ोसियों को दुख पहुंचे।
-मुसलमानों के जिस वर्ग को शब-ए-बारात में विशेष रूचि नहीं. उनकी अनावश्यक आलोचना न करें।
-पटाखे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं। शब-ए-बारात की रात इससे दूरी बनाए रखें।
-दिल्ली जैसे देश के महानगरों में इबादत के नाम पर रातभर घर से बाहर रहने वाले युवक सड़कों पर बाइक और साइकिल से स्टंट करते फिरते हैं। इससे बचें।
-शब-ए-बारात की रात दिल्ली में बाइकर्स सड़कों पर आतंक मचाते हैं। यहां तक कि दूसरों के धार्मिक स्थालों के पास जाकर हुड़दंगबाजी करते हैं। ऐसे बच्चों के अभिभावकों को उन्हें रोकना चाहिए।
(लेखक एवं लेखन::ए.के.केसरी)