26अगस्त विशेष आजादी की जंग : क्रांतिकारियों का वो डाका, जिसमें उन्होंने उड़ा दी थी 50 माउजर, पिस्टल और 46 हज़ार गोलियां,,,।
भारत ने चंद रोज पहले ही आजादी की 76वीं वर्षगांठ मनाई है. हर भारतवासी के लिए यह आजादी बेशकीमती है. हम सब जानते हैं कि यह आसानी से नहीं मिली. हमारे पूर्वज आजादी की दीवानों ने इसके लिए अनेक कुर्बानियां दीं।
आजादी के लिए अपनी जान को न्योछावर करने के लिए कई ऐसे लड़ाके रहे जिनकी चर्चा कम ही होती है. आजादी के ऐसे लड़ाके भी थे जिन्होंने अंग्रेजों की आंख से सुरमा चोरी कर लिया और उन्हें दो दिन बाद इसका पता चला., इस डकैती का दिन था 26 अगस्त 1914 और स्थान था आज का कोलकाता।
इस डकैती में 50 पिस्टल और 46 हजार कारतूस क्रांतिकारियों ने अपने कब्जे में ले लिया, जिसका इस्तेमाल काकोरी डकैती से लेकर देश की अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं में आजादी के दीवानों ने किया. अब यह जानना जरूरी है कि घटना हुई क्यों मतलब इसे अंजाम देने के पीछे की कहानी क्या है?
बदला लेने की तैयारी
इस पूरी कहानी की पटकथा साल 1908 में लिखी गई, जब खुदीराम बोस और उनके साथी प्रफुल्ल कुमार चाकी ने अंग्रेज जज किंग्सफोर्ड को मारने की कोशिश की. जिस बग्गी पर इन लोगों ने हमला किया उसमें अंग्रेज जज था ही नहीं, दो अंग्रेज महिलाओं की मौत हो गई. वहां से ये लोग भागे लेकिन खुदीराम बोस को पुलिस ने पकड़ लिया. बाद में उन्हें महज 19 साल की उम्र में फांसी दी गई. उनके दूसरे साथी प्रफुल्ल को पकड़वाने में भारतीय नंदलाल बनर्जी ने पुलिस की मदद की लेकिन उन्होंने अंग्रेजी पुलिस की गिरफ्त से निकलकर खुद को गोली मार ली. फिर अंग्रेजों ने उनका सिर काटकर शिनाख्त के लिए कोलकाता भेजा.
आंदोलनकारियों का गुस्सा परवान चढ़ चुका था. वे हर हाल में नंदलाल बनर्जी को सजा देना चाहते थे. नंदलाल को मारने की जिम्मेदारी क्रांति के सिपाही शिरीष चंद्र पाल को सौंपी गई. वे उन दिनों कोलकाता में ही नाम बदलकर रह रहे थे. पाल ने कुछ ही दिन बाद साल 1908 में ही नंदलाल की हत्या कर दी.
कैसे मिलेंगे हथियार, बनी योजना
उस समय गर्म दल के आंदोलनकारी यह महसूस करने लगे थे कि बिना हथियार यह जंग लड़ना आसान नहीं है. पर, मुश्किल यह थी कि पैसे इकट्ठा भी कर लें तो अंग्रेजी राज में हथियार मिलेंगे कैसे? यह बड़ा सवाल था. फिर तय हुआ कि हथियार लूटना होगा और इस योजना पर काम शुरू हुआ।
कोलकाता में रोडा एंड कंपनी नाम की फर्म अंग्रेजों के लिए हथियार इम्पोर्ट करती थी. जोर-जुगाड़ से एक क्रांतिकारी श्रीश मित्रा को इसी कंपनी में नौकरी दिलवा दी गयी. देखते ही देखते मित्रा कंपनी में सबके प्रिय हो गए. अब उन्हें कस्टम ऑफिस के संपर्क में रहने की जिम्मेदारी मिली. हर कंसाइनमेंट की जानकारी उनके पास होती थी. इस बीच मित्रा को जर्मनी से हथियारों की बड़ी खेप आने की जानकारी मिली।
उन्होंने टीम को बताया. शिरीष चंद्र पाल, बिपिन गांगुली ने इस खेप को लूटने की योजना पर काम शुरू किया. तय प्रोग्राम के मुताबिक मित्रा छह बैलगाड़ियां लेकर कस्टम दफ्तर रवाना हुए. इसी में पीछे से एक और बैलगाड़ी क्रांतिकारियों ने अपनी भी लगा दी. कस्टम दफ्तर से काफी माल छह बैलगाड़ियों में रखवा दिया गया और करीब 10 बक्से क्रांतिकारी हरी दत्ता की बैलगाड़ी में रखवा दिए गए।
वापसी में छह बैलगाड़ियां कंपनी के गोदाम पहुंच गईं और सातवीं आंदोलनकारी तय जगह पर ले गए. बक्से में 50 पिस्टल और 46 हजार कारतूस थे. इन्हें फटाफट बक्सों से निकालकर आंदोलनकारियों ने इधर-उधर शिफ्ट किया और शिरीष चंद्र पाल और हरीदास शहर से बाहर चले गए।
29 अगस्त को जब मिलान हुआ तो पता चला कि 10 बक्से कम पहुंचे हैं. मित्रा की तलाश हुई तो पता चला कि वे तीन दिन से काम पर नहीं आए हैं. पुलिस को सूचना दी गयी. बाद में हरीदास पकड़े गए. एक सहयोगी भूषण भी पकड़े गए. कुछ हथियार भी पुलिस ने बरामद किए. कालांतर में इस लूट के पिस्टल अनेक घटनाओं में इस्तेमाल किए गए. अंग्रेजी सरकार इस घटना के बाद चौकन्नी हो कई थी।
भारतीय आजादी के इतिहास की यह एक ऐसी घटना है, जिसकी चर्चा न के बराबर होती है. आज 26 अगस्त है. मौका भी है और दस्तूर भी कि हम आजादी के अपने इन दीवानों को याद करें. उन्हें नमन करें।