जी 20 शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद क्या तुर्की की सोच इस बार बदलेगी ?,,,।
G-20 समिट का सारा फोकस अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक तक सीमित हो जाने से बहुत सी दूसरी महत्वपूर्ण खबरें पीछे चली गईं। जो विदेशी अतिथि इस समिट के लिए भारत आए उनमें एक महत्वपूर्ण नाम तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तईप्प एर्दोगान का भी है। भारत और तुर्की के आपसी रिश्ते सामान्य होते हुए भी उनमें कुछ ऐसे पेंच हैं जिनको अगर सुलझाया जा सके तो भारत की यह एक बड़ी जीत हो सकती है।
ऐसी बड़ी समिट के दौरान आमतौर पर जो भी द्विपक्षीय वार्ताएं होती हैं उनकी पूरी जानकारी कभी बाहर नहीं आती। ये जरूर है कि अगले कुछ समय में दोनों देश जो कदम उठाते हैं उससे हम पढ़ सकते हैं कि जो बात हुई थी उसका असर किस तरफ है।
भारत लगातार तुर्की से संबंध सुधारने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है। अगर हम पिछले कुछ जी-20 सम्मेलन देखें तो लगभग हर बार मोदी और एर्दोगान के बीच अलग से बातचीत हुई है। पिछले साल शंघाई कोआॅपरेशन आर्गेनाईजेशन यानी एससीओ सम्मेलन के दौरान भी दोनों नेताओं के बीच बातचीत हुई थी।
हालांकि भारत ने जब जी-20 देशों के पर्यटन व्यवसाय पर कश्मीर में सम्मेलन किया तो तुर्की ने उसका बहिष्कार किया. जाहिर है तमाम कोशिशों के बावजूद भारत तुर्की की नीतियों को बदलने में कामयाब नहीं हुआ है। लंबे समय से तुर्की पाकिस्तान का समर्थन करता रहा है और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के पक्ष में बोलता रहा है।
भारत की कोशिश इसी सूरत को बदलने की रही है। पहले यह आसान लगता था लेकिन अब यह उतना आसान नहीं रहा। एक दौर था जब तुर्की कश्मीर मसले पर इस तरह खुलकर पाकिस्तान का साथ नहीं देता था जैसे वह अब देता है। एर्दोगान के राष्ट्रपति बनने के बाद तुर्की की नीतियों में जो बदलाव आए हैं उनमें से एक यह भी है।
लेकिन भारत के लिए समस्या इससे आगे भी है। पाकिस्तान ने एक तरह से दुनिया में भारत विरोधी प्रचार के लिए राजधानी अंकारा को अपना केंद्र बना लिया है। पाकिस्तान के कुछ कश्मीर समर्थकों संगठनों की सक्रियता की खबरें भी वहां से आती रहती हैं।
पश्चिम एशिया के देशों में अगर हम सउदी अरब की बात करें तो जी-20 के कश्मीर में हुए पर्यटन सम्मेलन का बहिष्कार किया था, लेकिन उसने कभी अपनी जमीन को भारत विरोधी गतिविधियों का केंद्र नहीं बनने दिया। यही वजह है कि पिछले कुछ साल में भारत और सउदी अरब के रिश्तों में काफी सुधार हुआ है।
वैसे एर्दोगान की यह भारत की पहली यात्रा नहीं है। 2017 में भी वे भारत आए थे और तब उन्हे जामिया यूनिवर्सिटी ने डाॅक्टरेट की मानद उपाधि भी दी थी। उस दौरान भी उनकी प्रधानमंत्री मोदी से मुलकात हुई थी, लेकिन कोई बहुत बड़ा नतीजा नहीं निकला था। वैसे एर्दोगान इसके पहले मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी भारत आए थे, लेकिन तब वे राष्ट्रपति नहीं प्रधानमंत्री थे।
इस बार स्थितियां बदली हुई हैं। इस साल फरवरी में जब तुर्की में भीषण भूकंप आया था तो वहां लोगों की मदद के लिए भारत ने आपरेशन दोस्त चलाया था। इस मदद के महत्व को तुर्की में आम लोगों के अलावा सरकार ने भी स्वीकारा था।
यही वजह है कि इस बार उम्मीदें पहले से ज्यादा हैं। हालांकि यह कुछ समय बाद ही पता चल सके कि मुलाकात की तस्वीरों में जो गर्मजोशी दिखाई दी जमीन पर उसका असर कितना रहा।
(वरिष्ठ पत्रकार, हरजिंदर सिंह)।