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वाराणसी संकटमोचन मंदिर के बगीचे से ही क्यों आता है कदंब का पेड़? कल होगी नागनथैया की लीला, पांच सौ सालों की है ये परंपरा, जानिए,,,।

वाराणसी संकटमोचन मंदिर के बगीचे से ही क्यों आता है कदंब का पेड़? कल होगी नागनथैया की लीला, पांच सौ सालों की है ये परंपरा, जानिए,,,।

नागनथैया लीला की परंपरा गोस्वामी तुलसी दास के जमाने से पांच सौ वर्षों से अनवरत चली आ रही है। लीला के दिन भोर में ही श्री संकटमोचन मंदिर के बगीचे से कदंब का पेड़ काटा जाता है। कदंब के वृक्ष की पूजा की जाती है। इसके बाद पेड़ को ऐसे काटा जाता है जिस पर चढ़कर भगवान श्रीकृष्ण यमुना रूपी गंगा में कूद सकें। एक पेड़ काटने के एवज में लगभग एक हजार पौधे भी लगाए जाते हैं। यही कारण है कि पूरा बगीचा आज जंगल का रूप ले चुका है।

संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वंभर नाथ मिश्र ने बताया कि यह परंपरा गोस्वामी तुलसीदास के जमाने से चली आ रही है। लीला के लिए पेड़ काटने के बाद भक्त अपने कांधे पर लादकर तुलसी घाट लाते हैं। जहां से वृक्ष काटा जाता है, उसी दिन वहां एक और कदंब का नया पौधा लगा दिया जाता है। इसके साथ ही लगभग एक हजार पौधे भी लगाए जाते हैं। इसके बाद सुबह ही गंगा जी में दो बांस गाड़कर दो कमलपुष्प के प्रतीक रूप में उसी बांस के सहारे पेड़ लगा दिया जाता है।

दूसरी ओर लगभग 20 फुट लंबा नाग कपड़े की खोली में पुआल भरकर बनाया जाता है और मुंह पर सात फन वाले नाग का ढांचा बैठा दिया जाता है। पेड़ गंगा के किनारे लगाने के बाद नाग को पानी में डुबो दिया जाता है। नाग की रस्सी घाट पर गड़े खूंटे से बंधी रहती है और उसे कमल वाले बांस के सहारे बांध दिया जाता है। नागनथैया के दिन कृष्ण के पात्र का चयन भी लीला के दिन सुबह ही किया जाता है। प्रो. मिश्र ने बताया वह खुद आठ सालों तक नागनथैया के कृष्ण की भूमिका निभा चुके हैं।

कल होगी नागनथैया की लीला

काशी के लक्खा मेले में शुमार नाग नथैया की लीला इस बार 17 नवंबर को तुलसीघाट पर होगी। कार्तिक शुक्ल चतुर्थी शुक्रवार की शाम को तुलसीघाट पर भगवान श्रीकृष्ण की नागनथैया लीला सजेगी। लीला में ठीक शाम 4:40 बजे प्रभु कदंब की डाल से कूदेंगे और कालिया नाग को नाथकर उसके फन पर नृत्य मुद्रा में बांसुरी बजाते हुए श्रद्धालुओं को दर्शन देंगे। अखाड़ा गोस्वामी तुलसीसदास की ओर से आयोजित लीला को देखने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ता है। यह भक्ति और भाव का ही प्रभाव है कि काशी का तुलसी घाट गोकुल और उत्तरवाहिनी गंगा यमुना में बदल जाती हैं। तुलसीदास द्वारा शुरू की गई इस 22 दिनों की लीला की परंपरा आज भी कायम है। इसमें भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव से लेकर पूतना वध, कंस वध, गोवर्धन पर्वत सहित कई लीलाएं होती हैं।