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संपादकीय: आस्था के नाम हर बार हिंसा, अब तो हर त्योहार पर हो जा रही पथराव और आगजनी की घटना, प्रशासन द्वारा कड़ाई करना जरूरी...

संपादकीय: आस्था के नाम हर बार हिंसा, अब तो हर त्योहार पर हो जा रही पथराव और आगजनी की घटना, प्रशासन द्वारा कड़ाई करना जरूरी...

सम्पादकीय (A.K.KESARI)। उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में भड़की हिंसा ने एक बार फिर कुछ सवाल गाढ़े कर दिए हैं। मूर्ति विसर्जन के लिए निकली शोभायात्रा पर पथराव और फिर उपद्रवी संघर्ष में गोली लगने से एक युवक की मौत के बाद वहां सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया है।हालांकि प्रशासन का दावा है कि उपद्रवी भीड़ पर काबू पा लिया और आरोपियों की पहचान कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है। लेकिन अभी भी कुछ उपद्रवीयो को गिरफ्तार करना बाकी है।

मगर इस घटना से पूरे प्रदेश और देश के दूसरे हिस्सों में जो सांप्रदायिक विद्वेष की जड़ें थोड़ी और गहरे धंस गई हैं, उसे उखाड़ना इतना आसान नहीं होगा। आज इस घटना को गुजरे हुए चार दिन हो गए लेकिन अभी तक सांप्रदायिकता की आग थमी नहीं है।

ऐसी हर घटना के बाद यह सवाल उठता है कि आखिर हमारा समाज धार्मिक रूप से इतना असहिष्णु कैसे और क्यों हो गया है। क्यों कुछ लोगों को हिंसा में आनंद मिलने लगा है। बहराइच की घटना न तो अकेली है और न नई। अब तो शायद ही कोई पर्व-त्योहार ऐसा गुजरता है, जो बिना हिंसा के संपन्न हो जाता हो। 

यह विचित्र संयोग है कि अक्सर शोभायात्राओं पर पथराव की घटना हो जाती है। उन सबकी प्रकृति लगभग एक होती है। पहले तेज ध्वनि में संगीत बजाने पर एतराज जताया जाता है, फिर पत्थर फेंका जाता है और संघर्ष होता है। इसमें कोई न कोई मारा जाता और कुछ घायल हो जाते हैं। फिर प्रशासन सख्ती दिखाता है।

पुलिस से लेनी चाहिए थी अनुमति

कायदे से धार्मिक आयोजनों, शोभायात्राओं के बारे में पुलिस को सूचित करना जरूरी होता है और आयोजन की रूपरेखा बतानी और उसके लिए अनुमति लेनी होती है। मगर कम ही आयोजक इस कायदे का पालन करते देखे जाते हैं। जो पालन करते भी हैं, वे अक्सर मनमानी करते पाए जाते हैं। हनुमान जयंती पर दिल्ली में निकली शोभायात्रा के दौरान या फिर हरियाणा के नूंह में कलशयात्रा के समय भड़की हिंसा के पीछे भी लगभग यही कारण बताए गए थे। 

करीब साल भर पहले मध्यप्रदेश और राजस्थान के कुछ इलाकों में भी ऐसे ही उपद्रव देखे गए। मूर्ति विसर्जन, शोभायात्रा जैसे आयोजन लोगों की आस्था से जुड़े विषय हैं। दूसरी आस्था के लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे दूसरे धर्मों के लोगों की आस्था का भी सम्मान करें, मगर इसका अभाव लगातार बढ़ता देखा जा रहा है। फिर, सवाल यह भी है कि आस्था का यह अर्थ कबसे हो गया कि दूसरों की सुविधा-असुविधा का खयाल किए बगैर उसका प्रदर्शन किया जाए। बहराइच में अगर मामला तेज आवाज में संगीत बजाने से बिगड़ा, तो सवाल यह भी है कि वहां अगर धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर लगाने पर रोक है, तो फिर शोभायात्रा में इस बात का ध्यान रखना क्यों जरूरी नहीं समझा जाता।

इस हकीकत से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों से जब आस्था का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिशें तेज हुई हैं, तबसे उपद्रव और हिंसक संघर्ष अधिक बढ़े हैं। जब खुद राजनेता और धार्मिक नेता सार्वजनिक मंचों से लोगों को धार्मिक आधार पर एकजुट होने और हिंसा करने को उकसाते देखे-सुने जाते हैं, तो आम लोगों पर उसका प्रभाव नकारा नहीं जा सकता। उत्तर प्रदेश सरकार कानून-व्यवस्था के मामले में सख्त रुख अपनाने का दावा करती है, मगर पूछा जा सकता है कि आखिर ऐसा क्यों है कि वहां जब-तब इस तरह का सांप्रदायिक तनाव उभर आता है। बेहतर कानून-व्यवस्था की कसौटी राज्य में आपराधिक घटनाओं पर नकेल कसने के अलावा, धार्मिक और सामाजिक सौहार्द बनाए रखना भी होती है।